भगवान श्रीविष्णु सृष्टि के कण-कण में विराजमान होकर सृष्टि को गतिशील और जीवों का पालनपोषण करते हैं, प्राचीन समय की बात हैं, हिरण्यकश्यप नामक दैत्य ने परमपिता ब्रह्मा जी से ऐसा वरदान प्राप्त किया था जिससे उसे युद्ध में हरा पाना और उसका अंत करना सबके लिए असंभव हो गया था, तब भगवान विष्णु ने हिरण्यकश्यप नामक दैत्य को दिए वरदान के बाद भी नृसिंह अवतार लेकर अमरता के पास ले जाने वाले वरदान को असफल कर दिया, आइए जानते हैं, भय को भी गर्जना से भयभीत करने वाले भगवान नृसिंह की कथा.
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भगवान नृसिंह की कथा.
दैत्य हिरण्यकश्यप की तपस्या
सतयुग का चौथा चरण यानी प्राचीन काल में हिरण्यकश्यप नामक दैत्य हुआ था, उसने अमरता का वरदान प्राप्त करने के लिए एक पैर के अंगूठे पर खड़े होकर दूसरा पैर घुटने पर टिकाया और दोनों हाथों को ऊपर को और जोडकर मंत्र जाप कर परमपिता ब्रह्मा जी की अखंड तपस्या करना शुरू कर दिया।
हिरण्यकश्यप देवताओं का शत्रु था, देवताओं ने हिरण्यकश्यप की तपस्या पर विचार करना शुरू कर दिया काफ़ी समय बीत गया घनघोर वर्षा हुई, तपती दूप गर्मी और कड़ाके की ठंड में भी हिरण्यकश्यप की तपस्या भंग नहीं हुई।
देवताओं को यह भय सताने लगा की अगर हिरण्यकश्यप ने तपस्या को सफ़ल कर के ब्रह्मा जी से अमरता का वरदान प्राप्त कर लिया तो उस दैत्य को नियंत्रित रखना देवतागण और देवराज इंद्र के लिए भी असंभव कार्य हो जाएंगा, और इंद्र के साथ सभी देवता दैत्य हिरण्यकश्यप से पराजित भी हो जायेंगे।
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सभी देवताओं ने हिरण्यकश्यप की तपस्या को भंग करने का प्रयास करना शुरू कर दिया। उन्होंने अपनी शक्तियों से भारी वर्षा करवाई, तूफान आंधी का निर्माण किया ,अग्नि देव ने आसपास के क्षेत्र में अग्नि का निर्माण किया किंतु हिरण्यकश्यप की तपस्या अटल जान पड़ रही थीं।
काफी वर्षों के समय की अखंड तपस्या के कारण हिरण्यकश्यप का शरीर कंकाल की तरह और बेहद कमजोर हो गया था, ब्रह्मा जी को हिरण्यकश्यप के सामने प्रकट होना पड़ा । उन्होंने अपनी शक्ति से हिरण्यकश्यप के शरीर पुनः तपस्या से पहले की तरह शक्तिशाली किया। और हिरण्यकश्यप को वरदान मांगने को कहां।
दैत्य हिरण्यकश्यप ने ब्रह्मा जी को देखा और प्रमाण किया, और अमरता का वरदान मांगा । किंतु ब्रह्मा जी अमरता का वरदान किसी को नहीं दे सकते थे, उन्होंने अमरता का वरदान न दे पाने की बात हिरण्यकश्यप से कहीं और इस वरदान के सिवा दूसरा कोई भी वरदान प्राप्त करने को कहां।
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हिरण्यकश्यप को अमरता ही प्राप्त करनी थी तो उसने सभी तरह के मृत्यु के द्वार बंद कर देना का सोचा और वरदान मांगते हुए कहां परमपिता ब्रह्मा! ना मुझे कोई नर मार सके ना नारी और ना किन्नर, सृष्टि के समस्त पशु, पक्षी और जीव से मेरा वध न हो सके, देवता यक्ष गंधर्व में से कोई मुझे परजीत और मेरा वध न कर सकें, मेरा वध करने के लिए चले हुए सभी तरह के अस्त्र और शस्त्र विफल हो जाएं। मेरा वध न धरती पर हो और ना ही आकाश में न दिन में और ना ही रात्रि में न घर और महल में न घर के बाहर ।
ब्रह्मा जी ने “तथास्तु” कहकर हिरण्यकश्यप को वरदान दिया।
देवताओं की पराजय
ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त कर हिरण्यकश्यप को अमर हो जाने का भ्रम हुआ क्योंकि उसके अनुसार मृत्यु के सभी द्वार बंद हो गए थे बाद में उसने पृथ्वी के साथ अन्य लोकों में विचरण करने लगा उनसे देवताओं से युद्ध करना शुरू कर दिया वरदान में कारण हिरण्यकश्यप को पराजित करना और उसका वध करना देवताओं के साथ सभी के लिए असंभव था । उसने देवताओं को युद्ध में पराजित कर दिया और पृथ्वी के साथ देवताओं के राज्य को भी प्राप्त कर लिया।
सभी देवतानों ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की और बाद में भगवान विष्णु ने उनके संकट का निवारण करने का आश्वासन दिया।
प्रह्लाद की अटूट भक्ति
प्रह्लाद पांच वर्ष आयु का बालक था और हिरण्यकश्यप का पुत्र था। पांच वर्ष आयु में ही प्रह्लाद को भगवतप्राप्ति हो गई थीं प्रह्लाद निरंतर हरी का नाम सुमिरन करता था।
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जब हिरण्यकश्यप को उसके पुत्र की भगवान विष्णु की भक्ति के बारे में पता चला वह प्रह्लाद से घृणा करने लगा।
और अपने पुत्र को विष्णु की भक्ति करने से रोकने लगा उसने प्रह्लाद को मृत्यु दंड देने का प्रयास किया।
हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को हाथी के पैर के नीचे कुचलवाकर मरना चाहा लेकिन वह असफल हुआ ।
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बाद में उसने विषैले नागों से भरे कारागृह में प्रह्लाद को फेंक दिया, लेकिन प्रह्लाद को कोई भी भय और हानि नहीं हुई और प्रह्लाद की हरी भक्ति में कोई बाधा नहीं आई।
बाद में उसने प्रह्लाद को गहरी खाई में फेंक देने का आदेश दिया राक्षसों ने उसे गहरी खाई में फेंक दिया किंतु प्रह्लाद फिर से जीवित रहा।
हिरण्यकश्यप की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था उसे अग्नि जला नहीं सकती थीं, प्रह्लाद को मारने के लिए वह प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि कुंड में बैठ गई अग्नि को जलाया गया कुछ देर बाद वह जल गईं क्योंकि उसे वरदान स्वयं की रखा के लिए दिया गया था लेकिन वह अहंकार में चूर थीं। और केवल होलिका की ही हानि हुई।
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भगवान नृसिंह प्रकट हुए
जब सभा में प्रह्लाद को उपस्थित किया गया, हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद से विष्णु का पता पूछा। प्रह्लाद ने उत्तर देते हुए कहां पिताश्री! भगवान विष्णु संसार के कण-कण में विराजमान हैं, मुझे सभा में उपस्थित सभी में विष्णु ही दिखाई देते है। इस भवन के सभी निर्जीव वस्तुओं में भी श्रीविष्णु विराजमान हैं।
हिरण्यकश्यप ने कहां : क्या वो विष्णु इस भवन में खंब भी हैं।
प्रह्लाद ने कहां : हां पिताश्री वे इस खंब में भी हैं।
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हिरण्यकश्यप ने अत्यंत क्रोध से गदा से खंब पर मारा खंबा टूट गया और एक भयानक क्रोधित गर्जना सुनाई दी।
भगवान नृसिंह खंब से बाहर आए वो आधे नर और आधे सिंह की तरह थे दोनों में अस्त्र-शस्त्रों से युद्ध हुआ नृसिंहदेव ने हिरण्यकश्यप को पकड़ लिया और उसे सभाभवन के चौखट पर लेकर गए और उसे गोद में पकड़ लिया। अपने नाखूनों से दैत्य हिरण्यकश्यप का पेट फाड़कर उसका वध कर दिया ।
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उस समय न तो दिन था न रात्रि वह संध्याकाल का समय था, वह न तो घर में था और न घर के बाहर वह दरवाजे की चौखट पर था, भगवान नृसिंह न तो नर लग थे न पशु आधे नर लगते थे और आधे पशु, उसकी मृत्यु न धरती पर हुई थी न आकाश में वह धरती और आकाश के मध्य भगवान नृसिंह के गोद में था, उसका वध न अस्त्र से हुआ न शस्त्र से भगवान नृसिंह ने अपने नाखूनों से उसका वध किया.
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