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जीवात्मा किसे कहेंगे? और परमात्मा किसे कहेंगे?

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ध्यान में गहरा उतरने से आत्मा का बोध होता हैं जिसे आत्मज्ञान केहेतें हैं । लेकिन आत्मा को इंद्रियों और बुद्धि से नहीं जाना जा सकता, अगर भौतिक संसार की दृष्टि से देखा जाएं तो आत्मा कुछ नहीं हैं। जब आत्मज्ञान प्राप्त होता हैं। मन को केवल यह ज्ञात होता हैं की अब उसके सामने कुछ ऐसा हो गया हैं जिसे वह मन, बुद्धि से अथवा इंद्रियों से नहीं जान सकता वह केवल इस चेतना तक की सीमित हैं । इसके परे जो हैं वह सत्य हैं जो सभी अनुभूतियों से परे हैं। इसमें केवल विलीन हुआ जाता हैं और इनमें विलीन होने के लिएं मन का पीछे छोड़ा जाना आवश्यक हैं। मन को लेके यहां नहीं जाया जा सकता। इसके बाद जो हैं वह परमात्मा हैं वह परम शांति हैं।

जो व्यक्ति इस घटना को उपलब्ध होता हैं वह निश्चित ही जीवात्मा से परमात्मा बनने के मार्ग का ज्ञाता होता हैं। जीवात्मा से परमात्मा के बीच का क्या मार्ग हो सकता हैं जानते हैं ।

सबसे पहले यह समझना हैं की जीवात्मा क्या हैं? इसका सरल उत्तर हैं जिसे जीव “मैं” जानते वह जीवात्मा हैं। यह भी कहना सही हैं जो जीव है वही जीवात्मा हैं।

जब “मैं” को भुला दिया जाता हैं उस समय मन की बोधमात्र अवस्था हो जाती हैं। संसार की जानने एक नई समझ बन जाती हैं यह “मैं” के लिएं नहीं होती बाकी ये किसके भी लिए हो सकती हैं। कभी कब यह स्थिति बड़ी अटपटी हो जाती है। वह निरंतर अस्थिर और असंतुष्ट हैं। उसे अगर इतना बोध रहे की वह केवल अपने अस्तित्व का समर्पण कर और आसक्ति का त्याग कर के ही शांत हो सकता हैं। तो वह परम शांति प्राप्त करता हैं। तो अब वह परमात्मा को उपलब्ध हो चुका हैं। यह अवस्था पूर्ण जागृत अवस्था समाधि हैं वह स्वयं ब्रह्म हैं।

मन इस सर्वोच्च वास्तविकता या परमात्मा में विलीन हो चुका हैं, इंद्रियों की कोई सांसारिक विषयों की भूख नहीं हैं। इंद्रियां सिर्फ जागरूक मात्र ही हैं । और जिस को हमने जीवात्मा जाना उसका तो कोई अस्तित्व ही नहीं हैं। न तो भौतिक से और न ही आध्यात्मिक से जीवात्मा तो बस एक भ्रम ही हैं। बिलकुल उसी तरह जैसे स्थिर जल में चंद्र दिखाई देता हैं लेकिन चंद्र जल में नहीं वो तो आकाश में हैं।

निष्कर्ष,

जीवात्मा मन मात्र हैं और परमात्मा सर्वोच्च वास्तविकता हैं परमात्मा मन, अहंकार और इंद्रियों की तृप्ति की आसक्ति के परे हैं।

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