भगवान श्रीकृष्ण के विराट रूप को विश्वरूप भी कहां जाता हैं, सम्पूर्ण जगत, अनंत ब्रम्हांड, तीनों लोक भगवान के इस अनंत व्याप्त रूप में समाया हुआ हैं। भगवान के इस रूप को परम रहस्य हैं अर्जुन के अलावा कोई इस विराट रूप के दर्शन नहीं कर सका हैं।
कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को विराट रूप को देखने के लिए दिव्य दृष्टि प्राप्त करवाकर विराटरूप दर्शन करवाया था, श्रीमद भगवद्गीता के ग्यारवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण के विराट स्वरूप का वर्णन हैं, अर्जुन भगवान के विराटरूप के दर्शन कर अत्यंत भयभीत होकर भगवान से कुछ वचन कहता हैं।
श्रीमद भागवत गीता में अर्जुन के वचनों के द्वारा इस विराट स्वरूप को कुछ हद तक जाना गया हैं। चलिए जानते है अर्जुन के द्वारा इस असीम विराटरूप का वर्णन क्या है.
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अर्जुन द्वारा कुरुक्षेत्र में भगवान श्री कृष्ण का विराट रूप वर्णन
दिव्य दृष्टि प्राप्त कर अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण के असीम विश्वरूप के दर्शन किए।
अर्जुन ने भगवान के इस सर्वत्र व्याप्त रूप में असंख्य मुख, नेत्र और विश्वरूप दैवी मालाएं, आभूषण, वस्त्र धारण किए थे, और उसपर अनेक सुगंधिया लगी थी, दिव्य अस्त्र-शस्त्र धारण कर असंख्य भुजाएं थी, अर्जुन ने देवताओं, गंधर्वों, आदित्यो, वासूओं, रूद्रों, अश्विनीकुमारों, को भगवान के विराट रूप में एकत्र देखा।
भगवान के इस विराट रूप (विश्वरूप) में तीनों काल (भूत, भविष्य, वर्तमान) चर–अचर एकत्र समाहित थे।
विराट रूप हजारों –लाखों सूर्यों के प्रकाश से भी कई अधिक तेजस्वी दिखाई दे रहा था । हजारों ब्रम्हांड के अंश एक स्थान पर दिखाई देने लगे ।
रिमाचित हुए अर्जुन ने भयभीत होकर भगवान से यह वचन कहें।
अर्जुन उवाच
पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वास्तथा भूतविशेषसड्यान् । ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थ- मुषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान् ||
अर्जुन के कहां ! – हे भगवान् कृष्ण! मैं आपके शरीर में सारे देवता, विविध जीवों को तथा कमल पर विराजमान ब्रह्मा, शिव तथा समस्त ऋषियों और अलौकिक सपों को देख रहा हूँ।
अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रंपश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम् । नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादि पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ||
हे विश्वेश्वर, हे विश्वरूप! आपमें न आदि दिखता हैं, न मध्य और न ही अंत , आपके में सर्वत्र व्याप्त अनेकानेक हाथ, पेट, मुख, नेत्र दिखाई देते हैं ।
किरीटिनं गदिनं चक्रिण च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् । पश्यामि त्वां दर्निरीक्ष्यं समन्ता- दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् ||
आपके सर्वत्र फैले तेज के कारण आपके रूप को देखना कठिन है, प्रज्जवलित अग्नि कि तरह या सूर्य के अपार प्रकाश की तरह चारों ओर फैल रहा है। तो भी मैं इस तेजोमय रूप को सर्वत्र देख रहा हूं। आप अनेक मुकुटों, गदाओं तथा चक्रों को धारण किए है।
त्वमक्षरं परमं वेदितव्यंत्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् । त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ||
आप परम आदि और जानने योग्य हैं। आप इस ब्रह्मांड के परम आधार हैं। आप अविनाशी और पुरातन पुरुष हैं। आप सनातन धर्म के भगवान हैं। यह मेरा मत है।
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् | पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् ||
आप आदि, मध्य और अंत से रहित हैं। आपकी महिमा अनंत है। आपकी असंख्य भुजाएँ हैं और सूर्य और चंद्रमा आपके नेत्र हैं। मैं आपके मुख से प्रज्वलित अग्नि को निकलते हुए देख सकता हूँ जो आपके तेज से इस संपूर्ण ब्रह्मांड को जला रही है।
द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः । दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् ||
यद्यपि आप एक हैं, फिर भी आप आकाश, समस्त लोकों तथा उनके मध्य के समस्त स्थानों में व्याप्त हैं। हे महात्मन! आपके अद्भुत तथा भयानक रूप को देखकर समस्त लोक भयभीत हो रहे हैं।
अमी हि त्वां सुरसड्या विशन्ति केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गुणन्ति । स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसड्याः स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ||
देवताओं का सम्पूर्ण समूह आपकी शरण में आकर आप में प्रवेश कर रहा है। उनमें से कुछ लोग अत्यंत भयभीत होकर हाथ जोड़कर आपकी प्रार्थना कर रहे हैं। महर्षियों और सिद्धों के समूह वैदिक स्तोत्रों का पाठ कर रहे हैं और ” कल्याण हो” कहकर आपकी स्तुति कर रहे हैं।
रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या विश्वऽश्विनी मरुतश्चोष्मपाश्च । गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसङघा वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे ||
शिव के विभिन्न रूप, आदित्य, वसु, साध्य, विश्वेदेव, दोनों अश्विन, मरुद्रण, पितर, गन्धर्व, यक्ष, असुर और सिद्धदेव सभी आश्चर्यचकित होकर आपकी ओर देख रहे हैं।
रूपं महत्ते बहुवककत्रनेत्र महाबाहो बहुबाहूरूपादम् । बहुदरं बहुदंष्ट्राकराले दृष्ट्वा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम् ||
हे महाबाहु! अनेक मुख, नेत्र, भुजाएँ, जंघा, पैर, उदर और भयंकर दाँतों से युक्त आपके इस विशाल रूप को देखकर देवतागण सहित समस्त लोक अत्यंत व्याकुल हो रहे हैं और मैं भी व्याकुल हूँ।
नभः स्पृशं दीप्तमनेकवर्ण व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् । दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृति न विन्दामि शमं च विष्णो ||
हे सर्वव्यापी विष्णु! आपको आकाश को छूते हुए, मुख फैलाए हुए तथा नेत्रों से चमकते हुए देखकर मेरा मन भय से व्याकुल हो रहा है। मैं न तो धैर्य रख पा रहा हूँ, न ही मानसिक संतुलन बनाए रख पा रहा हूँ।
दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि । दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास ||
हे देवराज! हे जगत के वासी! मुझ पर प्रसन्न होइए! आपके प्रलय की अग्नि रूपी मुखों और आपके विक्राल दांतों को देखकर मैं अपना संतुलन बनाए रखने में असमर्थ हूँ। मैं सब ओर से चिंतित हो रहा हूँ।
अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राःसर्वे सहैवावनिपालसी । भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासी सहास्मदियैरपि योधमुख्यैः ||
वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि | केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु सन्दृश्यन्ते चूर्णितैरूत्तमाङ्गैः ||
धृतराष्ट्र के सभी पुत्र, उनके समर्थक राजा, भीष्म, द्रोण, कर्ण तथा हमारे प्रमुख योद्धा भी आपके भयंकर मुख में प्रवेश कर रहे हैं। मैं देख रहा हूँ कि उनमें से कुछ के सिर आपके दाँतों के नीचे कुचले जा रहे हैं।
यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति । तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति ||
जैसे नदियों की अनेक लहरें समुद्र में प्रवेश करती हैं, उसी प्रकार ये सभी महारथी भी आपके प्रज्वलित मुखों में प्रवेश कर रहे हैं।
यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा विशन्ति नाशाय समूद्धवेगाः । तथैव नाशाय विशन्ति लोका- स्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः ||
मैं देख सकता हूँ कि सभी लोग पूरी गति से आपके मुँह में प्रवेश कर रहे हैं, ठीक वैसे ही जैसे पतंगे अपने विनाश के लिए धधकती आग में कूद पड़ते हैं।
लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ता- ल्लोकान्समग्रान्वदनैज्वलद्भिः । तेजोभिरापूर्य जगत्समग्र भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो ||
हे विष्णु, मैं देख रहा हूँ कि आप अपने प्रज्वलित मुखों से सभी दिशाओं के लोगों को निगल रहे हैं। आप अपनी प्रचण्ड किरणों के साथ प्रकट हो रहे हैं, तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अपने तेज से भर रहे हैं।
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