Bhagwan Shiv Ke 12 Jyotirling पृथ्वी के जिन स्थानों पर भगवान शिव स्वयं प्रकट हुएं इन स्थलों को ज्योतिर्लिंग कहां जाता हैं। भारत में भगवान शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंग यानी 12 ज्योतिर्लिंग स्थित हैं । ज्योतिर्लिंग का अर्थ है “ज्योति का लिंग” इन ज्योतिर्लिंग में साक्षात भगवान शिव ज्योति रूप में वास करते हैं। शास्त्रों में 12 ज्योतिर्लिंग की विशेष महत्व हैं। कहां गया हैं की इनके दर्शन मात्र से ही मनुष्य के जन्मों-जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं, जीवन के कष्ट दूर होते हैं और भगवान शिव के भक्तों को मोक्ष प्राप्त हैं।
भगवान शिव के ये 12 ज्योतिर्लिंग कहां हैं! और ज्योतिर्लिंग के पुण्यकथा और इनके नाम जप कीर्तन का पाठ क्या हैं! इस लेख में जानते हैं।
12 ज्योतिर्लिंग के नाम
पृथ्वी के जिन स्थानों पर भगवान शिव साकार रूप में प्रकट हुएं वे 12 ज्योतिर्लिंग हैं सोमनाथ, मल्लिकार्जुन, महाकालेश्वर, ओमकारेश्वर, केदारनाथ, भीमाशंकर, विश्वनाथ, त्र्यंबकेश्वर,बैजनाथ, रामेश्वर, नागेश्वर और घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग
ज्योतिर्लिंग नामजप पाठ
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्। उज्जयिन्यां महाकालं ओम्कारम् अमलेश्वरम्॥ परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशङ्करम्। सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥ वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे। हिमालये तु केदारं घुश्मेशं च शिवालये॥ एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रातः पठेन्नरः।
द्वादश ज्योतिर्लिंग के नाम जप पाठ करने से भक्त का जीवन और मृत्यु के पश्चात भी सर्वोत्कृष्ट कल्याण होता हैं।
12 ज्योतिर्लिंग नमजप पाठ वीडियो
12 ज्योतिर्लिंग कहां-कहां पर स्थित हैं?
ज्योतिर्लिंग
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| स्थान |
सोमनाथ | गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र |
मल्लिकार्जुन
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| आंध्रप्रदेश में कृष्णा नदी के तट पर |
महाकालेश्वर | मध्यप्रदेश, उज्जैन नगर |
ओमकारेश्वर
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| मध्यप्रदेश, मान्धाता पर्वत |
केदारनाथ | हिमालय, अलकनंदा और मंदाकिनी नदियों के तट पर |
भीमाशंकर
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| महाराष्ट्र, पुणे से 100 किलोमीटर अंतर पर |
विश्वनाथ | धर्मनगरी काशी, गंगा तट पर |
त्र्यंबकेश्वर
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| महाराष्ट्र, नासिक से 30 किलोमीटर अंतर पर |
बैजनाथ | झारखंड, देवघर
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|
रामेश्वर | तमिलनाडु, रामनाथपुरम |
नागेश्वर | गुजरात में द्वारकापुरी से 17 मील अंतर पर |
घुश्मेश्वर | राजस्थान, कोटा |
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12 ज्योतिर्लिंग की कथा
सोमनाथ ज्योतिर्लिंग
प्राचीन ग्रंथ के अनुसार सोम यानी चंद्रदेव का प्रजापति दक्ष के 27 कन्याओं से विवाह हुआ था। लेकिन चंद्रदेव उनकी पत्नी रोहिणी को बाकी पत्नीयों से अधिक प्रेम और सम्मान दिया करते थें। प्रजापति दक्ष को यह पसंद नहीं आया उन्होंने क्रोधित होकर चंद्रदेव की शाप दे दिया की हर दिन तुम्हारा तेज (काँति, चमक) क्षीण होता रहेगा। परिमाण स्वरूप हर दूसरे दिन चन्द्र का तेज घटने लग रहा था।
शाप से विचलित और दुखी भाव से चंद्र ने अपने आराध्य भगवान शिव की तपस्या करना शुरू कर दिया। अंततः भगवान शिव प्रकट हुए और उनके शाप का निवारण किया। उस स्थान पर चंद्रदेव ने भगवान शिव के शिवलिंग का निर्माण किया इसे ही सोमनाथ कहां जाता हैं।
सोमनाथ की एक और कथा भी हैं जब भगवान श्री कृष्ण अपना देह त्याग कर वैकुंठ में गए वह स्थान भी सोमनाथ ही हैं। सोमनाथ में भगवान श्रीकृष्ण का आ सुंदर मंदिर स्थापित हैं।
मल्लिकार्जुन ज्योर्तिलिंग
कथा के अनुसार प्राचीन समय में कौंचपर्वत के समीप चंद्रगुप्त नामक राजा की नगरी थीं। राजा की कन्या को किसी संकट के कारण राजधानी से भागना पड़ा था। पश्चात वह पर्वतराज के शरण में जाकर ग्वालों के साथ कुटिया बनाकर रहने लगीं। दूध और वन के कंदमूल खाकर उसका पर्वत पर जीवन व्यतीत हो रहा था। उसके पास एक श्यामा गौ (काली गाय) थी जिसकी वह स्वयं सेवा करती थी।
गाय के साथ एक विचित्र घटना घटी। रोज कोई छिप कर उसका दूध निकाल लेता था। जब उसने देखा तो पाया एक व्यक्ति से श्यामा का दूध दूह रहा था।
उस व्यक्ति को देखते ही कन्या क्रोधित हो गईं। क्रोधित कन्या ने भी उसके की पिटाई करने उसके पीछे दौड़ने लगीं। जब वह गाय के पास पहुंची तब वहां एक शिवलिंग प्रकट हुआ था और वह चोर कहीं लुप्त ही हो गया था। कन्या ने उस शिवलिंग पर एक मंदिर का निर्माण किया। वह शिवलिंग था मल्लिकार्जुन ज्योर्तिलिंग । मल्लिकार्जुन ज्योर्तिलिंग के दर्शन मात्र से राजकन्या के सारें कष्ट और संकट दूर हो गए।
महाकालेश्वर ज्योर्तिलिंग
महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की कथा शिव पुराण की कथा के अनुसार उज्जयिनी में चंद्रसेन नाम का एक राजा राज्य करता था, जो शिवभक्त था। भगवान शिव के अनुयायियों में से एक मणिभद्र से उसकी मित्रता थी। एक दिन मणिभद्र ने राजा को एक अमूल्य चिंतामणि दी, जिसे धारण करने के बाद चंद्रसेन का प्रभुत्व बढ़ने लगा। यश और कीर्ति दूर-दूर तक फैलने लगी। दूसरे राज्यों के राजा उस मणि को पाने के लिए लालायित होने लगे। कुछ राजाओं ने चंद्रसेन पर आक्रमण कर दिया। राजा चंद्रसेन वहां से भागकर महाकाल की शरण में चले गए और उनकी तपस्या में लीन हो गए। कुछ समय बाद एक विधवा गोपी अपने 5 वर्षीय पुत्र के साथ वहां पहुंची। बालक राजा को शिव भक्ति में लीन देखकर प्रेरित हुई और उसने भी शिवलिंग की पूजा शुरू कर दी। बालक शिव आराधना में इतना लीन हो गया कि उसे अपनी मां की आवाज सुनाई नहीं दी। उसकी मां उसे बार-बार भोजन के लिए बुला रही थी। जब बालक नहीं आया तो क्रोधित मां उसके पास गई और उसे पीटने लगी और शिव पूजा की सामग्री भी फेंक दी। बालक के इस व्यवहार से वह दुखी हो गया। तभी एक चमत्कार हुआ। भगवान शिव की कृपा से वहां एक सुंदर मंदिर बन गया, जिसमें एक दिव्य शिवलिंग था और बालक द्वारा चढ़ाई गई पूजा सामग्री भी थी। इस तरह वहां महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति हुई। उस बालक की मां भी इस घटना से आश्चर्यचकित थी।
ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग
प्राचीन समय में मान्धाता नमक एक राजा थें। राजा भगवान शिव के अनन्य भक्त थें। राजा ने नर्मदा नदी के किनारे जाकर शिव की तपस्या करना शुरू कर दिया । शिव प्रकट हुए तब राजा ने उन्हें वही ज्योति रूप में निवास करने का वरदान मांगा। तब से यह एक प्रसिद्ध तीर्थ ओंकार-मान्धाता नाम से जाने लगा।
ओंकार भौतिक विग्रह स्थल में 68 तीर्थ हैं। और 33 कोटि देवता वहा वास करते हैं।
केदारनाथ ज्योतिर्लिंग
इस ज्योतिर्लिंग की कथा भगवान श्रीविष्णु के अवतार नर नारायण से जुड़ी हैं। महातपस्वी नर नारायण पर्वतराज हिमालय पर भगवान शिव की तपस्या करने लगें। तब भगवान शिव प्रकट हुए और नर नारायण ने उससे वही ज्योतिर्लिंग में निवास करने की प्रार्थना की और शिव वहीं पर अवस्थित हो गए।
केदारनाथ ज्योतिर्लिंग की दूसरी कथा भी हैं । यह कथा महाभारत कालीन पांडवों से जुड़ी हैं। जब पांडवों ने कौरवों पर विजय प्राप्त की पांडव भ्रातृहत्या के पाप से मुक्ति पाना चाहते थे। इसके लिएं वे भगवान शिव के दर्शन कर आशीर्वाद लेने के लिएं काशी चलें गए। शिव उन्हें नहीं मिले तो से घूमते-फिरतें हिमालय तक जा पहुंचे। भगवान शिव पांडवों की परीक्षा ले रहें थे इसी लिएं वे वहां से अंतर्ध्यान होकर केदार में जा बसे। पांडव की लगन भी पक्की थे वे भी महादेव को ढूंढने केदार आ पहुंचे। पांडव भाईयों को दर्शन से वंचित रखने के लिएं महादेव ने एक बैल का रूप धारण कर लिया और वे अन्य गाय-बैलों में जाकर मिल गए।
पांडवों को विस्मय हो रहा था तब भीमसेन ने अपना विशाल रूप धारण कर लिया और दो पर्वत पर अपने पैर फैला दिए। गाय-बैलों ने डर कर भीम के पैरों के नीचे से दौड़ लगा दी। महादेव रूप बैल भीम के पैरों के नीचे से जाने को तैयार नहीं हुएं। बैल भूमि के अंदर अंतर्ध्यान होने लगें। भीम ने बैल को अंतर्ध्यान होने से रोकने के लिएं उसकी त्रिकोणात्मक पीठ को पकड़ लिया । महादेव पांडवों की भक्ति और और दृढ़ संकल्प को देंखकर प्रसन्न हो गए और उन्हें वास्तविक रूप में दर्शन देकर पाप से मुक्त कर दिया। तब से महादेव बैल की पीठ के आकृति पिंड के रूप में केदारनाथ में पूजे जातें हैं।
भीमाशंकर
शिवपुराण में लंका के राजा रावण के भाई कुंभकर्ण के पुत्र के अत्याचारों और नरसंहार की कथा है।
कुंभकर्ण के पुत्र भीम का जन्म उसके पिता की मृत्यु के बाद हुआ था। बचपन में उसे पता नहीं था कि भगवान राम ने उसके पिता का वध कर दिया है।
जब भीम बड़ा हुआ तो उसे इस बात का पता चला। वह बदले की भावना से जलने लगा और उसने अपने पिता की हत्या का बदला लेने की कसम खा ली।
वह जानता था कि राम से युद्ध करके जीतना आसान नहीं है। इसलिए उसने घोर तपस्या की और ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया। ब्रह्मा जी ने उसे विजयी होने का वरदान दिया।
इसके बाद भीम ने अपनी राक्षसी शक्ति का इस्तेमाल कर लोगों को नुकसान पहुंचाना शुरू कर दिया। उसके अत्याचारों से न केवल मनुष्य बल्कि देवता भी परेशान हो गए। – चारों तरफ हाहाकार मच गया। अंत में देवताओं ने भगवान शिव से मदद की गुहार लगाई।
भगवान शिव ने देवताओं को उसके अत्याचार से मुक्त कराने का वादा किया और खुद उसका वध करने का फैसला किया।
जिस स्थान पर महादेव ने भीम का वध किया वह स्थान देवताओं के लिए पूजनीय हो गया। सभी ने भगवान शिव से उसी स्थान पर शिवलिंग के रूप में प्रकट होने की प्रार्थना की।
भगवान शंकर ने देवताओं की यह प्रार्थना स्वीकार कर ली और उसी स्थान पर शिवलिंग के रूप में प्रकट हुए। तभी से यह स्थान भीमाशंकर के नाम से जाना जाता है।
काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग
काशी विश्वनाथ को शिव और पार्वती का आदि स्थान माना जाता हैं। जब पार्वती अपने पिता के घर रहती थी। देवी पार्वती अप्रसन्न होती थीं। पार्वती ने शिव की अपने घर ले जाने को प्रार्थना की। और शिव ने पार्वती की इच्छा से काशी में विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग के में विराजमान हो गए।
त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग
शिवमहापुराण में त्र्यंबकेश्वर की रोचक कथा हैं। तपोवन में गौतम ऋषि उनकी पत्नी अहिल्या और अन्य ब्राह्मण उनकी पत्नियों के साथ रहते थें। किसी बार पर ब्राह्मणों की पत्नियां गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या से क्रोधित हुई। और उन्होंने अपने पतियों से गौतम ऋषि का अपमान करने के लिएं प्रेरित किया। स्त्रीहट के कारण इसके निमित्त ब्राह्मणों ने श्री गणेश की तपस्या की । पश्चात श्री गणेश उनके के सामने प्रकट हुए और उनसे को वर मांगने को कहां। ब्राह्मणों ने कहां “प्रभु! हम गौतम ऋषि को तपोवन से बाहर निकालने के लिए आपकी सहायता चाहतें हैं” गणेश जी ने ऐसा वर मांगने से उन्हें समझाया किंतु ब्राह्मण नहीं समझें। ब्राह्मण अपने आग्रह पर अटल थें।
अंततः गणेश जी को विवश होकर उनकी सहायता करनी पढ़ी।
गणेश जी ने एक अत्यंत दुर्बल गाय का रूप ले लिया और और गौतम ऋषि के खेत में फसल को बिगाड़ने लगें। जब गौतम ऋषि की दृष्टि गाय पर पड़ी उन्होंने हात में एक घास का पत्ता लिया और गाय को फसल बिगड़ने से रोकने के लिए समीप गाएं नरमी से उन्होंने गाय को घास का पत्ता लगाया और स्पर्श होते ही गाय मरकर गिर पड़ी। गौतम ऋषि को बड़ा आश्चर्य हुआ। तपोवन में शोर मच गया सभी ब्राह्मण एकत्र हुए और गौतम ऋषि की गौ-हत्यारा बोल कर निंदा करने लगें।
गौतम ऋषि विस्मित और दुखी थें। ब्राह्मणों ने कहां “तुम जैसे गौ-हत्यारे के साथ रहकर हमे भी पाप लगेंगा , तुम यहां से कहीं दूर चलें जाओ” गौतम ऋषि अपनी पत्नी अहिल्या के साथ वहां से चले गए और एक कोस दूर जाकर रहने लगें। किंतु कुछ समय बाद ब्राह्मणों ने वहां भी उनका जीवन नीरस करने के लिए कहां “तुम जैसे गौ-हत्यारे को वेद-पाठ, यज्ञ आदि कार्य करने का अधिकार नहीं हैं”
अत्यंत दुखी होकर अनुनय भाव से गौतम ऋषि ने ब्राह्मणों से गौ-हत्या के पाप का प्रयश्चित और उच्चार का मार्ग पूछा। ब्राह्मणों ने कहां गौतम! तुम अपने पाप को सब और बताते हुएं तीन बार पृथ्वी की परिक्रमा करो। फिर एक महिनें तक व्रत करो। इसके बाद ब्रह्मगिरी की 101 परिक्रमा करने पर तुम्हारे पाप की शुद्धि होंगी। अथवा यहां गंगाजी को लाकर उनके जल से स्नान कर के एक करोड़ पार्थिव शिवलिंगों से शिव जी आराधना करों इसके बाद पुनः गंगा जी में स्नान कर के इस ब्रह्महिरी की 11 बार परिक्रमा करों
फिर सौ घड़ों के पवित्र जल से पार्थिव शिवलिंगो को स्नान कराने से तुम्हारा उद्धार होंगा।
ब्राह्मणों के उपाय अनुसार गौतम ऋषि शिव की आराधना करने लगें आराधना से प्रसन्न होकर शिव जी ने गौतम ऋषि से वरदान मांगने को कहां गौतम ऋषि ने कहां “भगवन् आप मुझे गौ हत्या के पाप से मुक्त कर दीजिए” भगवान शिव ने कहां गौतम! तुम सर्वथा निष्पाप हो। गौ-हत्या का पाप एक छल था। मैं उन को दंड देना चाहता हूं।
गौतम ऋषि ने कहां भगवन! उनके निमित्त से मुझे आपके दर्शन हुएं । मैं इसमें मेरा परमहित समझता हूं आप उनपर क्रोध न होइए। बाद में वहां बहुत से देवता मुनि भी उपस्थित हुएं, गौतम ऋषि के बात का अनुमोदन करते हुए शिव जी से वहां बस जाने की प्रार्थना की । उनकी बात मानते हुए शिव वह त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग के नाम से स्थित हो गए। गौतम ऋषि की लाई हुई गंगा गोदावरी बन कर बहने लगी। त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग समस्त पुण्यों को प्रदान करवाने वाला तीर्थ हैं।
बैजनाथ ज्योतिर्लिंग की कथा
लंकापति रावण एक अहंकारी और दृष्ट राजा था। किंतु वह भगवान शिव का भक्त था। एक बार रावण कैलाशपर्वत पर शिव की भक्तिभाव पूर्वक आराधना कर रहा था। बहुत समय तक आराधना करने पर भी शिव प्रसन्न नहीं हुए। फिर वह दूसरे विधि विधान से तप साधना करने लगा। उसने सिद्धिस्थल हिमालय पर्वत से दक्षिण की ओर सघन वृक्षों से भरे जंगल में पृथ्वी में खोदकर गड्ढा बनाया। रावण ने गड्ढे में अग्नि की स्थापना की और हवन (आहुतियाँ) प्रारम्भ कर दिया। उसने शिवलिंग को भी अपने पास ही स्थापित किया। तप के लिए उसने कठोर संयम-नियम को धारण किया।
रावण गर्मी के दिनों में पाँच अग्नियों के बीच में बैठकर पंचाग्नि सेवन करता, तो वर्षाकाल में खुले मैदान में चबूतरे पर सोता था और शीतकाल (सर्दियों के दिनों में) में आकण्ठ (गले के बराबर) जल के भीतर खड़े होकर साधना करता। इतनी कठोर तपस्या करने पर भी शिव उससे प्रसन्न नहीं हुएं। रावण सिद्धि प्राप्त करने में असफल जानकर अपना एक एक सिर कटकर शिव लिंग को समर्पित करने लगा उसने नौ सिर काट डाले जब वह अंतिम दसवां सिर कटकर शिवलिंग पर चढ़ने वाला था उसी समय भगवान शिव रावण के सामने प्रकट हुएं । शिव ने रावण के नौ सिरों को धड़ से जोड़कर जीवित कर दिया सिद्धि प्राप्त करने का फल भी रावण को प्राप्त हुआ और भक्तवत्सल भोलेनाथ ने रावण को वरदान प्राप्त करने को कहा। वरदान मांगते हुए रावण ने कहां देवेश्वर! आप मुझ पर प्रसन्न होइए। मैं आपकी शरण में आया हूँ और आपको लंका में ले चलता हूँ। भगवान शिवने कहां – राक्षसराज! तुम मेरे इस उत्तम लिंग को भक्तिभावपूर्वक अपनी राजधानी में ले जाओ, किन्तु यह ध्यान रखना- रास्ते में तुम इसे यदि पृथ्वी पर रखोगे, तो यह वहीं अचल हो जाएगा। अब तुम्हारी जैसी इच्छा हो वैसा करो इतना कहकर शिव वहां से अंतर्ध्यान हो गए।
रावण उस शिवलिंग को लेकर प्रसन्नता पूर्वक लंका की और जाने लगा भगवान शंकर की मायाशक्ति के प्रभाव से उसे रास्ते में जाते हुए मूत्रोत्सर्ग (पेशाब करने) की प्रबल इच्छा हुई। समर्थवान रावण इसे रोकने में असमर्थ था। उसे एक ग्वाल दिखाई दिया। उसने शीघ्र ही ग्वाल को आवाज लगाई और शिवलिंग को उसे हात में पकड़ा दिया। ग्वाल मणिमय शिवलिंग के भार को ज्यादा समय तक उठाने में समर्थ नहीं था उसने उस शिवलिंग को नीचे पृथ्वी पर रख दिया । और वह शिवलिंग वही स्थापित हो गया।
रावण निराश होकर वापस लंका लौट गया और अपनी पत्नी मंडीधारी से यह घटना बताई। इन्द्र आदि देवताओं और ऋषियों ने समाचार को सुनकर आपस में परामर्श किया और वहाँ पहुँच गये। भगवान शिव की अटूट भक्ति होने के कारण उन लोगों ने अतिशय प्रसन्नता के साथ शास्त्र विधि से उस लिंग की पूजा की। सभी ने भगवान शंकर का प्रत्यक्ष दर्शन किया। इस प्रकार रावण की तपस्या के फलस्वरूप श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का प्रादुर्भाव हुआ, जिसे देवताओं ने स्वयं प्रतिष्ठित कर पूजन किया।
नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की कथा
सुप्रीय एक धर्मात्मा और सदाचारी वैश्य था । वह भगवान शिव का अनन्य भक्त था। वह नियमित भगवान शिव की पूजा, आराधना करता था और ध्यान समाधि में तल्लीन रेहेता था। मन ,वचन, कर्म से वह शिवमय में तल्लीन रेहेता। सुप्रीय की शिव भक्ति से दारुक नामक एक राक्षस बहुत क्रोधित रहित था। दारुक नियमित उसके शिव भक्त में विघ्न लाने का प्रयास करता था। एक बार सुप्रीय नौका पर सवार होकर कही जा रहा था दारुक ने अवसर पाकर सुप्रीय और अन्य नौका सवारों को पकड़ लिया और कारागृह में बंधी बना लिया।
सुप्रीय कारागृह में भी शिव की भक्ति में लीन रहता था। और कारागृह से मुक्ति के लिएं अन्य बंधियो को भी शिव भक्ति प्रार्थना में प्रेरित करता। जब दारुक को यह सैनिकों से समाचार मिला तो वह क्रोधित हो उठा और कारागृह के और गया। उसने सुप्रीय क्रोधपूर्वक शिवभक्ति करने से रोका किंतु वह असफल हुआ। तब उसने सुप्रीय के साथ अन्य बधियों को भी मृत्यु दंड देने आदेश दिया। सुप्रीय इस बात से तनिक भी भयभीत नहीं हुआ। तब भगवान शिव सुवर्ण सिंहासन पर विराजमान ज्योतिर्लिंग रूप में प्रकट हुएं और सुप्रीय के साथ अन्य निष्पाप बंधियों को मुक्त किया। शिव जी के दिए हुए पशुपतास्त्र से सुप्रीय ने दारुक का वध किया। शिव जी के आदेशानुसार इस शिवलिंग को नागेश्वर ज्योतिर्लिंग कहा जाता हैं।
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रामेश्वर ज्योतिर्लिंग
रामेश्वरम के प्रसिद्ध मंदिर की स्थापना के बारे में ये रोचक कथाएं कही जाती हैं। सीताजी को मुक्त कराने के लिए राम ने लंका पर आक्रमण किया था। उन्होंने युद्ध के बिना ही सीताजी को मुक्त कराने का बहुत प्रयास किया, लेकिन जब रावण ने मना कर दिया तो उन्हें युद्ध करने के लिए बाध्य होना पड़ा। इस युद्ध के लिए राम को वानर सेना के साथ समुद्र पार करना पड़ा, जो बहुत कठिन कार्य था। तब श्री राम ने युद्ध में सफलता और विजय के बाद कृतज्ञता प्रकट करने के लिए अपने आराध्य भगवान शिव की आराधना करने के लिए समुद्र तट की रेत से अपने हाथों से एक शिवलिंग बनाया, तब भगवान शिव प्रकाश के रूप में प्रकट हुए और उन्होंने इस लिंग की तुलना श्री रामेश्वरम से की। इस युद्ध में रावण के साथ-साथ उसके पूरे राक्षस कुल का नाश हो गया और अंत में श्री राम सीताजी को मुक्त कराकर वापस लौटे।
रावण भी कोई साधारण राक्षस नहीं था। वह महर्षि पुलस्त्य का वंशज और वेदों का ज्ञाता तथा भगवान शिव का बहुत बड़ा भक्त था। उसे मारने के बाद श्री राम को बहुत दुःख हुआ। ब्रह्म हत्या के पाप का प्रायश्चित करने के लिए श्री राम युद्ध जीतने के बाद रामेश्वरम गए और यहां पूजा की। शिवलिंग की स्थापना के बाद इस लिंग को काशी विश्वनाथ जैसी मान्यता दिलाने के लिए उन्होंने हनुमानजी से काशी से शिवलिंग लाने को कहा। हनुमान पवनपुत्र थे। वे बहुत तेज गति से आकाश मार्ग से चलकर शिवलिंग ले आए। यह देखकर राम बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने रामेश्वर ज्योतिर्लिंग के साथ काशी के लिंग की भी स्थापना की।
घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग
सुधर्मा ब्राह्मण अपनी पत्नी सुदेहा के साथ देवगिरि पर्वत के पास रहता था। उनके कोई संतान नहीं थी। सुदेहा ने अपने पति का विवाह अपनी छोटी बहन घुश्मा से करा दिया जो भगवान शिव की बहुत बड़ी भक्त थी। वह प्रतिदिन 100 मिट्टी के शिवलिंग बनाती और उनकी पूजा कर उन्हें तालाब में विसर्जित करती थी। भगवान शिव की कृपा से उसे एक पुत्र की प्राप्ति हुई। समय के साथ बड़ी बहन सुदेहा अपनी छोटी बहन की खुशी देख नहीं पाई और एक दिन उसने अपनी छोटी बहन के पुत्र को मारकर तालाब में फेंक दिया। पूरा परिवार दुख से घिर गया। लेकिन शिव भक्त घुश्मा को अपने आराध्य भोलेनाथ पर पूर्ण विश्वास था। वह प्रतिदिन की तरह शिव पूजा में लीन रहती थी। एक दिन उसने अपने पुत्र को उसी तालाब में वापस आते देखा। अपने मृत पुत्र को पुनः जीवित देखकर घुश्मा बहुत प्रसन्न हुई। कहा जाता है कि उस समय शिव वहां प्रकट हुए और अपनी बहन सुदेहा को दंड देना चाहते थे। लेकिन घुष्मा ने अपनी बहन की शमा करने विनती की।
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निष्कर्ष;
पृथ्वी के जिन स्थानों पर भगवान शिव स्वयं प्रकट हुएं इन स्थलों को ज्योतिर्लिंग कहां जाता हैं। भारत में भगवान शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंग यानी 12 ज्योतिर्लिंग हैं ।