वैदिक, वैष्णव, शैव, शाक्त इत्यादि संप्रदायों में जिसे महाविष्णु, सदाशिव, शक्ति, और दुर्गा इत्यादि कहा जाता है; ये एक ही परम ब्रह्म के विविध नाम हैं | लेकिन वह परब्रह्म कोन है; इसे कैसे जाना जा सकता है क्या आपने कभी इसके बारे में सोचा है |
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परब्रह्म शब्द दो शब्दों से बना है ‘परम’ और ‘ब्रह्म’ ; ‘परम’ का अर्थ है ‘सर्वोच्च’ ; ‘ब्रह्म’ वह है जिसमें चराचर विद्यमान रहता है | ‘परब्रह्म’ शब्द; ‘परम’ और ‘ब्रह्म’ से मिलकर बना है | परब्रह्म का अर्थ है सर्वोच्च ब्रह्म यानी वह जो ब्रह्म से भी परम् है |
अगर कोई मुझसे पूछता है की “ब्रह्म कौन है और परब्रह्म कौन है?” | तो ब्रह्म कौन है तो इसका उत्तर मैं मौन से देता हूं और परब्रह्म कौन है इसका उत्तर मैं “कुछ नहीं” कहकर देता हूं |
अगर आप उन उत्तरों के पीछे के रहस्य पर विचार करते है तो निश्चित है आपको इसका अंदाजा लग जायेगा की मेरे मन में क्या हुआ था |
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ब्रह्म कौन है इसका उत्तर मैने मौन से दिया था और परब्रह्म कौन है इसका उत्तर “कुछ नहीं” बोलकर दिया था |
मनुष्य अपनी बुद्धि और विवेक के कारण पृथ्वी के सभी जीवों से श्रेष्ठ है | परंतु वह आखिर एक तरह का जीव ही हैं और जीव मिथ्या जगत के मायाजाल में बंधा होता हैं |
ब्रह्म वह है जिसका उत्तर इस मिथ्या जगत में मौन धारण कर दिया था | क्योंकि ब्रह्म मिथ्या जगत के अधीन नही है की हम उसका वर्णन मुख से बता सके वह इसे धारण किए हुए हैं, वह जगत का कोई विषय नहीं है; जगत के परे है। यानी जगत ब्रह्म में ही विद्यमान हैं बिलकुल उसी तरह जैसे आयने में परछाई विद्यमान रहती है | परछाई से परे आयने पर दृष्टि रखने के लिए हमें नजर बंधन से मुक्त होकर उसे देखने पर वह दिखना संभव हो जाता है |
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इसी तरह इस ब्रह्म में विद्यमान जगत के बंधन से मुक्त हो जाकर ब्रह्म के दर्शन संभव है | जगत से वैराग्य और मन की निर्विकल्प अवस्था समाधि में स्थित होकर ब्रह्म में विलीन हुआ जाता है | इस अवस्था में योगी स्वयं ब्रह्म हो जाता है यानी वह अपने ब्रह्म स्वरूप को प्राप्त हो जाता है | और ब्रह्म में विद्यमान जगत और चैतन्य आत्मा, जगत कारण; ब्रह्म का दर्शन होता है |
परब्रह्म यानी वह सत्ता जो ब्रह्म से भी परम् है; उसे अगर कोई सिद्ध योगी प्राप्त हो जाता है तो वह इस जगत कारण चैतन्य स्वरूप; ब्रह्म से भी परे हो जाता है | यह अवस्था शब्दों से परे है यह मौन से भी परे है। इसी लिए इसका उत्तर देना ही संभव नहीं हैं |
जो इस मिथ्या जगत और इस जगत के कारण चैतन्य ब्रह्म से परे है; इसे भला शब्दों से कैसे जाना जा सकता हैं | उस सर्वोपरि सत्ता का अंदाजा बुद्धि से नहीं लगाया जा सकता, परंतु योग से इसे साधा अवश्य जा सकता है | श्रीमद भगवद्गीता में जीवात्मा की परब्रह्म को प्राप्ति परमगति हैं |
जो साधक परमगति यानी परब्रह्म को प्राप्त हो जाता है | वह पुनः इस जन्म-मृत्यु के चक्र वाले संसार में लौट कर नहीं आता |
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जब सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी की रात्रि आती है यानी जब प्रलय आता है | तब सभी जगत के जीव अव्यक्त हो जाते है; सुक्ष्म शरीर में ब्रह्म में विद्यमान हो जाते है। जब ब्रह्माजी की रात्रि समाप्त हो जाती है तब पुनः व्यक्त हो जाते है | ब्रह्म में विद्यमान होकर उन्हे संसार से मुक्ति नहीं मिलती, वह सुक्ष्म अवस्था में ब्रह्म में विद्यमान होते हैं | सृष्टि के साथ व्यक्त होते हैं और प्रलय काल में पुनः अव्यक्त हो जाते हैं |
परंतु परब्रह्म सर्वचैतन्य, सर्वतेजोमय, सर्वकारणकारणम जगत, माया, काल सभी वर्णनों से और ब्रह्म से परे है; और परम् है | वह सत्ता गुनातीत है, अव्यक्त है |
ऋषि नेति-नेति कहकर उसके गुणों का खण्डन करते हैं | “नेति नेति” का अर्थ होता है ‘ऐसा भी नहीं, ऐसा भी नहीं’
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इसीलिए मैने परबह्म क्या है इसका उत्तर “कुछ नहीं” कहकर दिया था इसका अर्थ यह नहीं की उसकी सत्ता नहीं हैं बल्कि इसका उत्तर है वही सत्ता परम सत्ता है |
‘कुछ नहीं’ का यानी वह जो सबकुछ और कुछ नहीं के भी परे हैं; वह परमसत्य है; उसका न आरंभ है, न मध्य है और न अंत है, परब्रह्म ही पूर्णज्ञान है; वह बुद्धि, मन, कल्पना और ब्रह्म जगत से परे अंतिम सत्ता हैं |
हम कुछ भी कर ले इसे शब्दों और बुद्धि से जान ही नहीं सकते | हमारा दिमाग फटने को आ जायेगा लेकिन हम उस सत्ता का अंदाजा भी नहीं लगा सकते | सृष्टि के सभी आयामों से परे सभी कारण जगत और कारण ब्रह्म से परे ही ईश्वर की सत्ता हैं | वही परब्रह्म है, वह अकल्पनीय है सब कुछ और कुछ नही से भी परे है |
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जीव से परे माया और माया से परे ब्रह्म और ब्रह्म से भी परे परब्रह्म की सत्ता जो अंतिम सत्य है | अद्वैत दर्शन में परब्रह्म को ही निर्गुण ब्रह्म कहा गया हैं |