परमात्मा का ध्यान में अनुभव – परमात्मा का ध्यान कैसे करें?
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परमात्मा का ध्यान में अनुभव – परमात्मा का ध्यान कैसे करें?

जीवन की सार्थकता है परमात्मा का ध्यान में साक्षात्कार जिससे व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त होता है।

क्या आपने कभी सोचा है कि सर्वोच्च वास्तविकता को कैसे प्राप्त किया जा सकता है? अर्थात वह अवस्था जहाँ आपका मन अंतरमुखी होकर पूर्ण शांति और परमानंद में विलीन हो जाता है।

परमात्मा वह परम तत्व है जो आप, मैं और समस्त अस्तित्व में व्याप्त है। जिस प्रकार दर्पण में परछाई स्थित होती है, उसी प्रकार यह सम्पूर्ण जगत परमात्मा में समाया हुआ है।

जब हम जागरूकता के साथ जगत के मायाजाल से आत्मा को मुक्त कर लेते हैं, तो हम परमात्मा के साथ एक हो जाते हैं। “जगत” का अर्थ है—शरीर और मन (अहंभाव), जिसे शायद आप आत्मा मान बैठे हों, लेकिन यह सत्य नहीं, बल्कि यह मिथ्या है।

अज्ञान के प्रभाव से जीव शरीर को ही अपना अंतिम अस्तित्व मान लेता है। लेकिन जब ज्ञान, योग और ध्यान को साधन बनाकर साधक अपने अहंकार और अज्ञान को दूर करता है, तब वह स्वयं को परम वास्तविकता में विलीन पाता है। यह जागरूकता अहंकार और मन से परे होती है और परमात्मा के साथ एकत्व स्थापित करती है।

जब कोई योगी ध्यान में उन्नति और सिद्धि को प्राप्त करता है, तो उसे आत्मज्ञान और परमात्मा का साक्षात्कार (अनुभव, ज्ञान) होता है। यही मानव जीवन की सार्थकता – मोक्ष की प्राप्ति है।

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ध्यान में परमात्मा का अनुभव

परमात्मा को बौद्धिक ज्ञान या इंद्रियों के माध्यम से जाना नहीं जा सकता। हमारी बुद्धि और इंद्रियाँ बाहरी दुनिया को समझने के लिए साधन हैं, लेकिन परमात्मा वह तत्व है , जो इन सबको चेतना से प्रकाशित करने वाला है।

परमात्मा अज्ञेय (जिसे जाना न जा सके) है, क्योंकि वह हमारी सोच, कल्पना और बुद्धि की सीमाओं से परे है। वह ज्ञेय नहीं, बल्कि “सर्वज्ञ” (सब जानने वाला) है।

सभी जीवों के भीतर परमात्मा – दिव्य चेतना विद्यमान होती है। जब कोई योगी ध्यान के माध्यम से इस चेतना का साक्षात्कार करता है, तो वह अपने अहंकार और व्यक्तित्व से मुक्त होकर परमात्मा में विलीन हो जाता है। इस अवस्था में वह “जो था, वह नहीं रहता” और परमात्मा के साथ पूर्ण एकता स्थापित कर लेता है।

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यदि कोई साधक परमात्मा से जुड़ना चाहता है, तो उसे अपने झूठे अहंकार को मिटाना आवश्यक होता है। जिस प्रकार सूर्य और अंधकार एक साथ नहीं रह सकते, उसी प्रकार दिव्य-ज्ञान स्वरूप परमात्मा और अज्ञान एक साथ नहीं हो सकते।

परमात्मा ही सर्वोच्च सत्य है और एकमात्र वास्तविकता है। जो कुछ भी भौतिक है, वह “अनात्म” है—अर्थात आत्मा से भिन्न है। बाहरी जगत, शरीर, मन और इंद्रियाँ सब भौतिकता के अंतर्गत आते हैं, लेकिन अज्ञान के प्रभाव से जीव इन्हें ही आत्मा मान बैठता है।

योगी जब ध्यान के माध्यम से इस भौतिकता के बंधनों से मुक्त होता है, तब वह आत्मा की पवित्रता को प्राप्त करता है, जो परमात्मा से अभिन्न है।

“जो ध्यान में अपने अस्तित्व को मिटा देता है, वही परमात्मा को प्राप्त करता है।”

यह ध्यान की उच्चतम अवस्था है, जिसे “समाधि” कहा जाता है। जब कोई योगी इस अवस्था को प्राप्त कर लेता है, तो वह आत्मा के समस्त बंधनों को समाप्त कर परमात्मा के साथ एक हो जाता है। यही परमात्मा का परमधाम है—जो जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति तथा अमरत्व की प्राप्ति है।

परमात्मा का ध्यान कैसे करें? – ध्यान की विधियाँ

परमात्मा का ध्यान करने के कई मार्ग हैं, जो व्यक्ति की आध्यात्मिक स्थिति और प्रवृत्ति के अनुसार अलग हो सकते हैं।

ये कुछ ध्यान विधियां है जिन्हें जीवन में अपनाकर ध्यान के अनंत गहराई में गोता लगाया जा सकता है। और जो हमारी ही आत्म में दिव्य तेज से प्रकाशित होने वालें परमात्मा को उपलब्ध हुआ जा सकता हैं।

  1. साकार और स्वरूप ध्यान – इसमें साधक किसी ईष्ट देवता, गुरु, या किसी दिव्य पर को अपने ध्यान का केंद्र बनाता है। ऐसा करते हुएं वह अपने मन की एकाग्रता की साधना करता है जिसे मन पर नियंत्रण पाने का अभ्यास होता है।
  2. निर्विकल्प ध्यान – साकार से अलग इस विधि में किसी भी वस्तु या विचार पर ध्यान नहीं दिया जाता, केवल जागरूकता में स्थित होने का प्रयास किया जाता है।
  3. मंत्र जाप साधना – इसमें किसी दिव्य मंत्र (जैसे “ॐ” या “सोऽहम्”) या अपने इष्ट देवता का जाप करते हुए ध्यान केंद्रित किया जाता है। यह ध्यान भगवान के श्रद्धालु भक्तों के द्वारा किया जाता हैं। जैसे भगवान कृष्ण के भक्त “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” मंत्र या “हरे कृष्ण हरे राम” मंत्र का जाप करते करते है या भगवान के चरण कमलों पर मन एकाग्र करते है।
  4. आत्मा साक्षी भाव ध्यान – इसमें साधक अपने विचारों, भावनाओं और शरीर को एक साक्षी भाव से देखता है, लेकिन उनसे जुड़ता नहीं। इसमें साधक जागरूकता से आत्मा को सांसारिक बंधनों से मुक्त करने का अभ्यास करते है। इस विधि को बुद्धि-योग भी कहा जाता हैं, जिसमे बुद्धि को सिद्धि का साधन बनाया जाता है।
  5. नादयोग ध्यान – इसमें आंतरिक ध्वनियों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है, जो हमें मन को एकाग्र करने से सुनाई देने लगती हैं । यह विधि नए साधकों के लिए बहुत सहायक हो सकती है। उन्हें ध्यान एकाग्र करने के लिए साधन प्राप्त हो जाता है। यह नाद मानव के मस्तिष्क के द्वारा तैयार किया जाता है और जैसे जैसे ध्यान गहरा होता जाता है यह नाद और स्पष्ट भीतर गूंजने लगता है। जो ध्यान की अनंत गहराई में उतरने के लिए एक साधन बन सकता है।

 

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नियमित ध्यान का अभ्यास और परमात्मा की उपलब्धि

नियमित ध्यान का अभ्यास करने वाला साधक अपने चित्त को निर्विकल्प (निर्द्वंद्व) बना सकता है। इस अवस्था में बुनियादी अज्ञान यानी अहमभाव का नाश हो जाता है, और योगी परम चेतना, आनंद में विलीन हो जाता है।

समाधि अर्थात परमात्मा के साथ पूर्ण एकता की अवस्था जहां योगी आत्म और परमात्म अलग नहीं रहते, इसे ध्यान साधना के माध्यम से प्राप्त की जाती है। ध्यान का निरंतर अभ्यास साधक को अज्ञान के अंधकार से मुक्त कर आत्मा को उसके वास्तविक स्वरूप में स्थापित करता है।

यह पूर्ण स्वतंत्रता की अवस्था होती है, जहाँ आत्मा किसी भी भौतिक बंधन से मुक्त हो जाती है। यह परम जागरूकता का सत्-चित्-आनंद स्वरूप है, जो परमात्मा में विलीन हो जाता है।

जब हम ध्यान और समाधि के बारे में सोचते हैं, तो इसे केवल कुछ समय की साधना तक सीमित नहीं रखना चाहिए। ध्यान में सिद्धि प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को अपने स्वभाव में अद्भुत परिवर्तन लाना आवश्यक होता है।

नियमित ध्यान का अभ्यास व्यक्ति के भीतर आंतरिक जागरूकता और आत्म-सुधार का आह्वान करता है। यह सकारात्मक परिवर्तन ही उसे ध्यान के उच्च शिखरों तक पहुँचाता है। ध्यान की गहराई में जाने से मन पर पूर्ण नियंत्रण पाया जाता है और आत्मा और मन को सच्चा मित्र बनाया जाता है।

इसका अंतिम लाभ यही है कि साधक ध्यान के माध्यम से परमात्मा के साथ एकत्व की अनुभूति करता है, और यही उसकी साधना का अंतिम लक्ष्य बन जाता है।

निष्कर्ष,

परमात्मा का ध्यान केवल एक इकाई नहीं, बल्कि आत्मा की परम गति की ओर बढ़ने का मार्ग है जो हमारे जीवन की सार्थकता है । ध्यान के माध्यम से हम अपनी सीमित पहचान से मुक्त होकर अपनी अनंत चेतना को पहचान सकते हैं।

नियमित ध्यान, संयम और समर्पण से साधक अपने भीतर दिव्यता को जाग्रत कर सकता है और परमात्मा के साथ एकत्व स्थापित कर सकता है। यह यात्रा हर किसी के लिए सरल नहीं अगर वह स्वयं में बदलाव को स्वीकार नहीं कर सकते , लेकिन इसके परिणाम अत्यंत आनंददायक और मुक्तिदायक हैं।

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