एक गांव में मनोहरदास नामक संत अपनी पत्नी वसुंधरा के साथ रहते थें।
एक दिन संत मनोहरदास ने साहूकार से ब्याज पर सौ रूपये लिए और वे सौ रुपयों को साधू संतों पर खर्च कर दिया। और साहूकार से बोला कुछ महीने बाद ब्याज समेत पैसे वापिस करूंगा।
महीने निकल गए। वह साहूकार भी बड़ा लालची था उसने काजी की कचहरी में अर्जी दे दी और डिगरी करवाकर ब्याज लगा लिया। संत मनोहरदास को उनके एक चाहने वाले ने आकर बताया तो वह काफी नाराज हो गए।
उन्होंने अपनी पत्नी वसुंधरा से कहा कि घर का सारा सामान पड़ौसियों के यहाँ पर रख दो। जिससे साहूकार उनको उस समान को ब्याज के लिए ना ले जा सके।
और मैं चार दिन इधर-उधर चला जाता हूँ जब रूपये होगें तो साहूकार को देकर उससे देरी के लिए क्षमा माँग लूँगा।
संत की पत्नी वसुंधरा: स्वामी ! मुझे निश्चय है कि रामजी अपने भक्त की कभी ब्याज नहीं होने देंगे। आपको कहीं पर भी जाने की जरूरत नहीं है।
मनोहरदास ने उनकी पत्नी का निश्चय देखा, फिर भी कहा, वसुंधरा! फिर भी मुझे कुछ दिन कहीं पर बिताने चाहिए।
वसुंधरा: स्वामी जी ! इसकी कोई जरूरत नहीं है। इस काम को रामजी आप ही सवारेंगे। पत्नी ने निश्चय के साथ कहा।
मनोहरदास मुस्कराकर बोले: वसुंधरा ! यही तो तेरा गुरू रूप है।
संत की पत्नी वसुंधरा ने कहा: स्वामी जी ! गुरू बोलकर मेरे सिर पर भार ना चढ़ाओ।
Purity of Life
Join Us on WhatsAppमनोहरदास : इसमें भला सिर पर भार चढ़ाने वाली कौनसी बात है। जो उपदेश दे, उसको गुरू मानना ही चाहिए।
मनोहरदास अपनी पत्नी के साथ बात करने में इतने मग्न हो गये कि उन्हें साहूकार और ब्याज वाली बात ही भूल गई। रात हो गई परन्तु साहूकार नहीं आया।
सोने से पहले संत ने फिर कहा: ऐसा लगता है कि साहूकार सुबह लोगों लेकर वसूली करने आएगा।
पत्नी ने दृढ़ता के साथ कहा: स्वामी जी ! जी नहीं, बिल्कुल नहीं, कोई ब्याज नहीं वसूला जाएंगा। परमात्मा जी उसे हमारे घर पर आने ही नहीं देंगे।
मनोहरदास : तुने मेरे रामजी से कुछ ज्यादा ही काम लेना शुरू कर दिया है!
पत्नी: स्वामी ! जब हम राम के हो गए हैं तो हमारे काम वो नहीं करेगा तो कौन करेगा ?
तभी अचानक किसी ने दरवाजा खटखटाया। पत्नी ने उठकर दरवाजा खोला तो सामने साहूकार का साहूकार का भेजा व्यक्ति खड़ा था।
संत की पत्नी वसुंधरा ने उस व्यक्ति से पूछा: क्यों राम जी के भक्त ! हमसे ब्याज वसूलने आए हो ?
व्यक्ति ने नम्रता से कहा: नहीं जी, माता जी ! आपसे ब्याज वसूलने अब कोई नही आयेगा।
क्योंकि जब हम कल ब्याज वसूलने आ रहे थे। वहाँ पर एक सुन्दर मुखड़े वाला और रेश्मी वस्त्र धारण करने वाला सेठ आया हुआ था।
उसने हमसे पूछा कि आपको कितने रूपये मनोहरदास से लेने हैं। साहूकार ने कहा कि 100 रूपये और ब्याज के 30 रूपये।
उस सन्दुर मुखड़े वाले सेठ ने एक थैली साहूकार के हात में रख दी, और कहां कि इसमें पाँच सौ रूपये हैं। यह मनोहरदास के हैं और हमारे पास सालों से रखे हुए है।
जितने तुम्हारे हैं आप ले लो और बाकी के मनोहरदास के घर पर दे दीजिए।
साहूकार जी उनसे और बातचीत करना चाह रहे थे, परन्तु वह पता नहीं एकदम से कहाँ चले गये जैसे लुप्त ही हो गए।
यह देखकर साहूकार पर बहुत प्रभाव पड़ा। वह समझ गया कि मनोहरदास कोई ईश्वर के बंदे हैं और वह उनकी ब्याज करके गुनाह के भागी बनने जा रहे थे।
साहूकार जी ने यह थैली आपके पास भेजी है, इसमें पूरे पाँच सौ रूपये हैं।
साहूकार जी ने कहा है कि मनोहरदास उनके रूपये भी धर्म के काम में लगा दें और उनका यह पाप क्षमा कर दें।
वसुंधरा जी ने मनोहरदास जी से कहा: स्वामी ! राम जी की भेजी हुई यह माया की थैली अन्दर उठाकर रखो।
मनोहरदास जी मुस्कराकर बोले: वसुंधरा जी ! इस बार रामजी ने तेरे निश्चय अनुसार कार्य किया है। इसलिए थैली तुझे ही लेनी होंगी।
वसुंधरा जी: कि नहीं स्वामी ! रामजी हमारे दोनों के हैं। इसलिए दोनों मिलकर उठाएंगे।
दोनों पति-पत्नी अपने रामजी का गुणगान करते हुये थैली उठाकर अन्दर ले गए।
उसी दिन मनोहरदास जी ने घर पर एक बहुत बड़ा भण्डारा करने की योजना बनाईं। जिसमें मनोहरदास जी ने वह सारी रकम खर्च कर दी गई।
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