“ब्राह्मण सत्यम,जगत मिथ्या” | तात्पर्य

‘ब्राह्मण सत्यम,जगत मिथ्या’ वाक्य अद्वैत वेदांत दर्शन का सार है। केवल इसका उच्चारण कर इसके महत्व को नहीं जाना जाता बल्कि इसे वास्तविकता में समझने की आवश्कता हैं। इस महावाक्य को वास्तविकता में समझने पर ही जीव स्वयं का कल्याण करता हैं।

इस आलेख में “ब्राह्मण सत्यम,जगत मिथ्या” महावाक्य को कैसे समझा जाए और इसका अर्थ क्या है जानते हैं।

“ब्राह्मण सत्यम,जगत मिथ्या” तात्पर्य

“ब्राह्मण सत्यम,जगत मिथ्या” का हिंदी अर्थ है , “ब्रह्म ही सत्य है और जगत भ्रम हैं”

ब्रह्म यानी वह चेतन तत्व जो समस्त जगत में व्याप्त है। ब्रह्म सभी जीवों को धारण करने वाला हैं, यह केवल एक है दो नहीं हो सकते। एक ही ब्रह्म समस्त भौतिक जगत को धारण करता है। 

जगत के हर अनु और तत्व में ब्रह्म विराजमान हैं, बल्कि अनु के अंदर के रिक्त स्थान में भी ब्रह्म व्याप्त हैं यह सर्वज्ञ हैं।

ब्रह्म जगत को धारण किए हैं, माया ब्रह्म की शक्ति हैं। जिससे जगत की उत्त्पति हुई हैं। जिससे जगत में भिन्नता होने का भ्रम पैदा होता हैं। माया को ओढ़ाकर ब्रह्म ही सर्वत्र विराजमान हैं। मनुष्य की इन्द्रियों से जगत को कुछ सीमा तक जाना जाता हैं। किंतु इन्द्रियों से ब्रह्म को नहीं जाना जाता।

माया से उत्पन्न हुआ जगत कालांतर में ब्रह्म में ही विलीन हो जाएगा। भौतिक जगत नश्वर हैं। इसीलिए जगत को मिथ्या कहा गया है । मायाको ओढ़कर ब्रह्म ही सर्वत्र विराजमान है यह शाश्वत है ब्रह्म निर्गुण निर्लेप, निराकार, तेजस्वी चेतन तत्व है। इसी कारण ब्रह्म को सत्य कहा गया हैं।

“ब्राह्मण सत्यम,जगत मिथ्या” वाक्य का अर्थ वास्तविकता में कैसे समझा जाता हैं।

“ब्राह्मण सत्यम,जगत मिथ्या”  वाक्य ब्रह्म को सत्य और जगत को मिथ्या यानी भ्रम करता है इसके अर्थ को हम इसकी वास्तविक व्याख्या नहीं कर सकते बल्कि ध्यान के द्वारा हम ब्रह्म के अनंत अस्तित्व को जानते हैं तथा जगत को नश्वर भ्रम जानते हैं।

ध्यान में गहरा उतरने पर मन, बुद्धि और इंद्रियों के द्वारा उत्पन्न हुआ संसार रूपी भ्रम समाप्त हो जाता है, और सर्वत्र व्याप्त ब्रह्म के दर्शन होते हैं। ब्रह्म के इस दर्शन को ही मोक्ष प्राप्त करना आत्मज्ञान प्राप्त करना और समाधि प्राप्त करना होता है समाधि में स्थित योगी  स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।

स्थितप्रज्ञ पांच कर्मेंद्रियां पांच ज्ञानेंद्रियां मन के साथ आत्मा में विलीन हो जाते हैं। और स्थितप्रज्ञ ब्रह्म स्वरूप में विलीन हो जाता हैं। इसे ऐसा भी कह सकते है वह संसाररूपी भ्रम से परे जाकर स्वयं के सत्य स्वरूप यानी ब्रह्म स्वरूप को जनता हैं।

संसार रूपी भ्रम से मुक्त होकर वह एक उद्घोष करता है “अहम् ब्रह्मास्मि” जिसका अर्थ है “मैं ब्रह्म हूं”

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