आत्म-ज्ञान क्या है? – पवित्र आत्मा का साक्षात्कार (अनुभव)

आत्म-ज्ञान क्या है?

साधकों! आत्म-ज्ञान क्या है? इसे हम इस प्रश्न में हुए शब्दों से ही समझ सकते हैं, जब आप ‘स्वयं’ की और इशारा करते हैं तो आप स्वयं को ‘आत्म’ कहते हैं, जब ‘आत्म’ के साथ ‘ज्ञान’ शब्द जुड़ जाता है तो ‘स्वयं का ज्ञान’ अर्थ निकलता है | इसका सीधा और सरल अर्थ यह भी निकाल सकते है की “मैं कौन हु” |

“मैं कौन हु” इसका अंतिम और सत्य उत्तर पाना ही आत्म-ज्ञान प्राप्त करना है |

अगर किसीसे यह पूछा जाएं तो मैं कौन है? तो इसका उत्तर यह निकाला जा सकता है की ‘मैं एक जीव’ ही या ‘मनुष्य जीव हूं’। लेकिन यह उत्तर सिर्फ भौतिक तक ही सीमित है |

आत्म-ज्ञान क्या है? इसका उत्तर भौतिक से संबंधित नही है | बल्कि इसका उत्तर आत्मा से संबंधित है। भौतिक शरीर में जागरूकता; चेतना है या यह जीवित है, इसका कारण आत्मा है | आत्मा क्या है इसे जानना ही आत्म-ज्ञान को प्राप्त करना है |

आत्म-ज्ञान क्या है यह कोई पुस्तक या कोई भी ज्ञानी नहीं प्राप्त करवा सकता है । बल्कि आप स्वयं के द्वारा ही आत्माज्ञान तक पहुंच सकते हैं । लेकिन आत्म-ज्ञान तक पहुंचना ज्यादातर लोगों के लिए थोड़ा कठिन हो सकता है | क्योंकि व्यक्ति का अपना मन ही आत्म-ज्ञान की विधि में बाधा उत्पन्न करता है |

आत्म-ज्ञान साधना में मन की बाधा

अगर आप मन को स्वयं से अलग समझकर इसपर ध्यान दे तो आप जान सकते है | इस मन किस तरह आपको वश में किया है | मानो जैसे आप कोई कठपुतली है जिसकी डोरियां आपके अस्थिर मन के पास है | जब ये मन किसी वस्तु, व्यक्ति, या स्थिति की कामना करता है तो आपकी इंद्रियां, आपकी बुद्धि मन के अधीन होकर मन के लिए ही कार्य करती है | बल्कि आपके जीवन में जो भी सुख और दुःख होते हैं। सभी का कारण ये मन ही है |

श्रीमद्भगवद्गीता में हमें एक रथ का उदाहरण मिलता है  जिसमे मनुष्य एक रथ को समान दिखाया गया है, इस रथ में पांच इंद्रियां इस रथ के पांच घोड़े के समान है, बुद्धि इस रथ की लगाम के समान है, मन इस रथ को चलाने वाला चालक के समान है और आत्मा इस रथ के स्वामी के समान है | आपके मन और इन्द्रियों को संगती से आप जीवन में सुख और दुख भोगते है |

अहंकार आत्म-ज्ञान से वंचित रखता है।

अहंकार की भावना का निर्माण कोई कर्म को करने से या किसी वस्तु या स्थिति को प्राप्त करने से हो सकता है। लेकिन आत्म-ज्ञान के बीच में बाधा उत्पन्न करने वाला अहंकार आपके अस्तित्व से भी है |

अस्तित्व यानी जिसे “मैं” कहते है यह स्वयं पर का अहंकार ही है | इस अहंकार को नष्ट करने के लिए ‘मैं’ नही संबोधना सिर्फ इतना पर्याप्त नहीं हैं बल्कि इस अहंकार को अंदर से यानी मन से बाहर निकल फेकना है तभी आत्मा का अनुभूति कि जा सकती है |

आत्म-ज्ञान की अनुभूति

मन, बुद्धि, कर्तव्यों और इन्द्रियों से परे जो आत्म है इस आत्म की अनुभूति जब होती है जब स्वयं को मन, बुद्धि, कर्तव्यों और इन्द्रियों से भिन्न जाना है, आत्मा जाना जाता है | यह आत्म-ज्ञान या स्वयं के सत्य स्वरूप की अनुभूति होती है | इस अनुभूति में मन निष्क्रिय यानी शांत या शून्य हो जाता है और अपना हमेशा जैसा व्यवहार नहीं करता, बुद्धि सभी विचारों से मुक्त होती है | और योगी स्वयं को आत्मा रूपी दिव्य चैतन्य में पाते है | आत्म-ज्ञानी योगी को यह आत्मा सर्वव्यापी चैतन्य, अनादि, दिव्य, मूल और शाश्वत जान पड़ती है |

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कैसे की जाती हैं आत्म-ज्ञान साधना?

आत्मा मन, बुद्धि और कर्तव्यों से परे है | लेकिन मन, बुद्धि और कर्तव्यों ने आत्मा को इस तरह धक रखा है की इसका को अनुभव या दर्शन करना कठिन लगता है |

आत्म को अनुभव करने के लिए मन , इन्द्रियों और कर्तव्यों को त्याग अत्यंत आवश्यक है जब तक त्याग की भावना नहीं होती आत्मा को अनुभव नही किया जा सकता है | इच्छा मन करता है अगर आत्म-ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा रख साधना करेंगे तो मन आत्मा को धक देगा | आत्म-ज्ञान साधना के लिए आपको शून्यता से ही शुरू करना होंगा जिसमे कोई इच्छा नहीं; कर्तव्य नहीं हैं, तब आत्म-ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है |

निष्कर्ष

आत्मज्ञान आपके आत्म की अनुभूति है आत्म आपके कर्तव्य, मन, बुद्धि और इन्द्रियों से परें है | आत्म या इस दिव्य चैतन्य की अनुभूति आपको तब होती है जब आप स्वयं को मन बुद्धि इंद्रियां और सभी कर्तव्यों से परे अकर्ता आत्मा जानते हैं |

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किसी की आत्मा को पसंद करने का क्या मतलब है?

जब आप किसी की आत्मा को पसंद करते है तो आप इसे प्रेम कह सकते हैं। किसी की आत्मा को पसंद करना बिलकुल उसी तरह हैं। जैसे किसी भी कामना के बिना किसी को पसंद करना यह निस्वार्थ प्रेम हैं।

आत्म-ज्ञान का मतलब क्या है?

आत्मज्ञान का मतलब है स्वयं का ज्ञान आत्मा को साक्षी जानकर आपके कर्तव्य , विचार, मन, बुद्धि, का ज्ञान प्राप्त करना।

आत्म-ज्ञानी की पहचान क्या है?

एक आत्मज्ञानी स्वभाव से सहज, भौतिक कामना रहित, हर जीवों के साथ एक तरह से रहना और सुख दुख जैसी हर परिस्थिति में एक जैसे रहता हैं, जिसने आत्मस्वरूप दिव्य चैतन्य को अपने भीतर जाना हैं। वह हर जीवों में इस चैतन्य को ही देखता हैं।

आत्म-ज्ञान का दूसरा शब्द क्या है?

आत्मसाक्षात्कार, परमज्ञान, ये आत्मज्ञान के समानार्थी शब्द हैं।

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