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अहम् ब्रह्मास्मि | माया के परे स्व का परम स्वरूप यानी ब्रह्म-स्वरूप 

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अहम् ब्रह्मास्मि | माया के परे स्व का परम स्वरूप यानी ब्रह्म-स्वरूप 

अहम् ब्रह्मास्मि | माया के परे स्व का परम स्वरूप यानी ब्रह्म-स्वरूप

 

“अहम् ब्रह्मास्मि” यह श्लोक योग की बहुत ही गहराई में उतरने के बाद सामने आया है | यह हमारे अस्तित्व के रहस्य को उजागर करता हैं | यह श्लोक अद्वैत वेदांत दर्शन के चार महावक्यों में से एक महावक्य है | अहम् ब्रह्मास्मि का अर्थ होता है “मैं ब्रह्म हूँ” | “मैं” से अर्थ है हर वो जो चैतन्य है आप भी चैतन्य है, मैं भी चैतन्य हूँ, हर जीव भी चैतन्य | पर चैतन्य होने से कोई ब्रह्म कैसे हो सकता है यहां जानिए

अहम् ब्रह्मास्मि श्लोक शाब्दिक अर्थ:

अहम् ब्रह्मास्मि श्लोक दुनिया के सबसे प्राचीन भाषा में से एक संस्कृत में है; इसका हिंदी में अर्थ होता है मैं ब्रह्म हूँ | यह श्लोक यजुर्वेद के बृहदारण्यक उपनिषद् में पाया जाता है |

अहम् : इसके अर्थ स्व, आत्म (“मैं”) होता है |

ब्रह्म : ब्रह्म (ब्रह्मांडीय चेतन, सार्वभौमिक चेतन, चेतन तत्व, आत्म तत्व) ब्रह्मांडीय चेतना अखिल ब्रह्मांड में व्याप्त है और अखिल ब्रह्मांड चेतना में विद्यमान है |

आस्मि : होना (“हूँ”)

अहम् ब्रह्मास्मि : मैं ब्रह्म हूँ

 

अहम ब्रह्मास्मी श्लोक के अन्य अर्थ:

अहम ब्रह्मास्मी के कुछ अन्य अर्थ भी है इन्हे भी जान लेते है | योगी अपनी अपनी श्रद्धा के अनुसार इसके अलग अलग अर्थ बनाते है | यह अर्थ एक दूसरे थे अलग लग सकते है परंतु इनका अर्थ एक ही तरह का है |

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  • मैं दिव्य हूँ : ब्रह्म का अनुभव दिव्य होता है यह सभी भौतिक यानी मायारूपी जगत से परे है | यह योग की सबसे उच्चतम अवस्था है |
  • मैं शुद्ध आत्मा हूँ : चित्त, मन इंद्रियों से विशुद्ध आत्मा ही ब्रह्म-स्वरूप है | वह निर्विकल्प और मुक्त है |
  • मैं परमात्मा हूँ : परमात्मा वह सर्वोच्च स्व; जो सभी जीवों को धारण करती है | वह सर्वव्यापी, सर्वज्ञ है
  • मैं पवित्र हूं : यह ब्रह्म की पवित्रता को दर्शाता है वह माया जगत से मुक्त परम पवित्र ब्रह्म है |
  • मैं ईश्वर हूँ : ईश्वर समस्त संसार का कारण है संपूर्ण संसार ईश्वर में विद्यमान है वेदों ने ईश्वर को ही ब्रह्म कहा है | ईश्वर की प्राप्ति ही परमपद है |
  • मैं ब्रह्मांड हूँ : ब्रह्मांड का अस्तित्व ब्रह्म में ही है वह ब्रह्मांड की आत्मा है |

योग में सिद्धि से ब्रह्म-स्वरूप को प्राप्त हुआ जा सकता है:

अहम् ब्रह्मास्मि (मैं ब्रह्म हूँ) योग के सबसे गहराई में उतरने पर होने वाला एक अनुभव है | यहां योगी की अपनी चेतना को मनुष्य देह और चित्त से मुक्त कर स्व यानी आत्मा के ब्रह्मांडीय चेतन होने के दर्शन करता हैं |

आदि शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत दर्शन के अनुसार ब्रह्म वह ब्रह्मांडीय चेतन तत्व है; यह अद्वैत हैं | इस संसार का हर पशु पक्षि और मनुष्य के चेतन होने का कारण ब्रह्म ही है | यह अद्वैत वेदांत दर्शन का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है ये अद्वैत वेदांत के चार सिद्धांत ( अहम ब्रह्मास्मी, तत् त्वम् असि, अयम् आत्मा ब्रह्म, प्रज्ञानं ब्रह्म) में से एक है |

योग चित्त की वृत्तियों का विरोध है और चित्त की निर्विकल्प अवस्था योग की सिद्धि समाधि है; जब वह इसे प्राप्त होता है तो वह स्व को चित्त, मन और इंद्रियों को शुद्ध आत्मा में विलीन कर आत्मा का ब्रह्म होने का बोध प्राप्त करता हैं और वह योगी ब्रह्म का दर्शन आत्म में ही करता है |

साधकों ! ब्रह्म निर्गुण, निराकार, निर्विकल्प चेतन तत्व है ब्रह्म में ही ब्रह्मांड विद्यमान हैं | ब्रह्म भौतिक नहीं है लेकिन जो कुछ भी भौतिक है शरीर, विचार और मन ब्रह्म सभी से परे है और “मैं” का परम और वास्तविक स्वरूप हैं |

अहम् ब्रह्मास्मि का उद्घोष केवल वह योगी कर सकता है जो वास्तविक ब्रह्म है यानी वह स्व जो जीव के सभी मुक्त हो चुका है | बिना साधना, सिद्धि और योग के अहम् ब्रह्मास्मि का उद्घोष व्यर्थ है | ब्रह्म का अर्थ है वह चेतन जो ब्रह्मांडीय है जिसमे ब्रह्मांड समाया हुआ है | वह अनादि और अविनाशी है |

इस सृष्टि में अनगिनत जीव रहते है जो जीवित है सभी चेतन होते है मनुष्य भी उन्ही जीवों में से एक तरह का जीव हैं | ब्रह्म इन सभी जीवों को धारण करता है | वह सब में विद्यमान है और सब उसमे ही विद्यमान है | परंतु जीवों को यह ज्ञान नहीं होता की उनका वास्तविक स्वरूप क्या है |

माया के अधीन होने के कारण वह स्वयं शरीर को धारण कर जन्म लेते रहते है और स्व को शरीर ही मानते हुए जीवन जीते है | अन्य जीव जंतुओं में मनुष्य जीव सबसे विवेकवान होता है | यह मनुष्य की समझ से परे नहीं है मनुष्य ज्ञान मार्ग से मुक्ति पाकर ब्रह्म को प्राप्त हो सकता है | ब्रह्म ही जीवन मृत्यु के चक्र से मुक्ति है |

योग एक जीवन जीने की कला है जो माया के बंधनों से मुक्ति प्राप्त करने का साधन है | यह व्यक्ति के भीतर की गहरी समझ है | माया वह है जो ब्रह्म के आधीन है इसका अर्थ है सर्वव्यापी ब्रह्म-स्वरूप को प्राप्त होने के लिए साधक को माया के बंधनों से मुक्ति प्राप्त करना आवश्यक है बिना इसके कोई इस आत्म तत्व के वास्तित्वक स्वरूप को नहीं जान सकता | माया के अधीन होने के कारण अज्ञान का परदा जो उसे ज्ञान से दूर रखता है और अज्ञान में स्थित करता है | इस परदे को हटना और स्वयं का और दुनिया का वास्तविक ज्ञान प्राप्त किया जाना चाहिए तभी यह महावाक्य; अहम ब्रह्मास्मी सिद्ध है |

अहम ब्रह्मास्मी श्लोक का जीवन में महत्व :

अहम ब्रह्मास्मी का बोध मनुष्य के जीवन में महत्वपूर्ण बदलाव का कारण बन सकता है | यह मानव के अपने अस्तित्व के सत्य को और मनाव जीवन का उद्धार क्या है इसे समझ पैदा करता है |

  1. आत्मज्ञान : आत्मा के परम और सच्चे स्वरूप का ज्ञान ही आत्मज्ञान है | जो साधक अहम ब्रह्मास्मी का अर्थ समझते है वे अपने विवेक से ही अपना कल्याण करते है |
  2. मोक्ष और मुक्ति : अहम ब्रह्मास्मी श्लोक हमें मोक्ष और मुक्ति के महत्व को समझ देता है, आत्म का सच्चा स्वरूप ब्रह्म-स्वरूप है; वह माया के परे है | वह जीव दुखदाई जीवन मृत्यु के माया जगत से मुक्ति है |
  3. योग : यह जीवन में योग को अपनाने का महत्व भी दर्शाता है योग में सिद्धि ब्रह्म- स्वरूप को प्राप्त हुआ जा सकता है | इसके अलग भी जीवन में भी योग के लाभ है|

अहम ब्रह्मास्मि पर अन्य प्रश्न और उत्तर

अहम् ब्रह्मास्मि किस उपनिषद का श्लोक है?

“अहम् ब्रह्मास्मि” श्लोक बृहदारण्यक उपनिषद् का है | बृहदारण्यक उपनिषद् प्राचीन ग्रंथ यजुर्वेद का भाग है | इसके बाद आदि शंकर के अद्वैत वेदांत दर्शन के चार महावाक्यों में से यह एक है |

अद्वैत वेदांत के चार महावक्य क्या है?

अहम ब्रह्मास्मी – मैं ब्रह्म हूं, तत् त्वम् असि – वो तुम हो अयम् आत्मा ब्रह्म – यह आत्मा ही ब्रह्म है, प्रज्ञानं ब्रह्म – चेतना ही ब्रह्म है | ये अद्वैत वेदांत का चार महावाक्य

अहम् ब्रह्मास्मि के अन्य अर्थ क्या है?

मैं पवित्र हूं, मैं परमात्मा हूं, मैं शुद्ध आत्मा हूं, मैं दिव्य हूं, मैं ईश्वर हूं और मैं मुक्त हूं |

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