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तत् त्वम् असि | तुम ही वह हो | क्या है समझिए

Vaishnava

ऋषियों ने साधना में सिद्धि से महाज्ञान प्राप्त किया और जैसा देखा वैसा ही नई पीढ़ी के लिए लिख दिया | ‘तत् त्वम् असि’ यह श्लोक छांदोग्य उपनिषद का है | ‘तत् त्वम् असि’ का अर्थ है “वह तुम ही हो” या “वह ब्रह्म तुम ही हो” ‘तत् त्वम् असि’ क्या है इस समझने के लिए इस लेख को पढ़िए |

'तत् त्वम् असि' क्या है समझिए 
तत् त्वम् असि

‘तत् त्वम् असि’ क्या है समझिए

“मैं कौन हूं?” या “ये जगत क्या है, क्यों है?” ऐसे प्रश्न आपके अंदर आते है | तो ‘तत् त्वम् असि’ छांदोग्य उपनिषद के इस श्लोक में आपको सभी प्रश्नों के उत्तर मिल जायेंगे |

जिस तरह से कोई अंधा अकेला हो जाए तो वह भटक जाता है उसे अपने घर कैसे वापिस जाना है पता नहीं होता लेकिन अगर कोई अन्य व्यक्ति उसकी मदद करता है तो वह अपने घर पहुंच सकता है |

उसी तरह से मानव इस संसार में भटक गया है | परंतु ऋषियों ने मानव की सहायता के लिए ग्रंथों की रचना की; जिससे भटका हुआ मनुष्य अपने घर पहुंच सकेंगा; यहां घर से अर्थ है ब्रह्म-स्वरूप की प्राप्ति या मोक्ष |

‘तत् त्वम् असि’ पर कई ऋषियों ने जोर देकर इसे सामने लाया है | आदि शंकर आचार्य के अद्वैत दर्शन में यह चार में से एक सिद्धांत है; इसे महावाक्य भी कहा गया |

‘तत् त्वम् असि’ के अर्थ :

  • तत् : वो
  • त्वम् : तुम
  • असि : हो

‘तत् त्वम् असि’ : “वह तुम हो”

कई ऋषियों ने इसके अलग अलग अर्थ बताए है लेकिन ये सभी अर्थ एक ही संकेत देते है |

‘तत् त्वम् असि’ के अन्य अर्थ

  • वह ब्रह्म तुम हो
  • जीव ही ब्रह्म है
  • सत्य तुम ही हो

‘तत् त्वम् असि’ यानी “वह ब्रह्म तुम ही हो” जब कोई यह वाक्य कहता है | तो जो उसके सामने है वह उसे ब्रह्म कहता है | कोई भी मानव, जीव, जंतु, वस्तु या विषय ब्रह्म से अलग नहीं है; और हो भी नहीं सकती | सत्य अद्वैत है, सत्य की अद्वितीयता को ही छांदोग्य उपनिषद का यह श्लोक ‘तत् त्वम् असि’ सूचित करता है |

साधकों! माया के कारण मानव और जीव स्वयं को इस संसार से अलग जानते है | वे स्वयं को शरीर और संसार को भोग समझते है | दूसरे जीवों को भी स्वयं से अलग समझते है, यह समझ ही अज्ञान है क्योंकि सत्य एक है; दो नहीं हो सकते | इस अज्ञान का कारण जीवों के मन के गहराई में बसा अहंकार है | यह अहंकार ही उन्हें सत्य से अलग कर है | उपनिषद का दूसरा महावाक्य है; ‘अहम ब्रह्मास्मि यानी ‘मैं ब्रह्म हूं’ ये ठीक है “लेकिन केवल मैं ही ब्रह्म नहीं हूं तुम भी ब्रह्म हो” यह ‘तत् त्वम् असि’ सूचित करता है | इसलिए ‘अहम ब्रह्मास्मि’ और ‘तत् त्वम् असि’ दोनों का सामान महत्व है |

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जैसे मैने एक उदाहरण से समझने प्रयत्न किया था, कोई अंधा जो दुनिया को नहीं देख सकता अगर वो खो जाएं तो कोई अन्य व्यक्ति जो देख सकता है वह उसकी मदद कर सकता है | उसी तरह जो लोग इस संसार में अज्ञानी की तरह रह रहें है उन्हें कोई ज्ञानी ‘तत् त्वम् असि’ का अर्थ समझाकर उसे मोक्ष का मार्ग दिखा सकता है |

‘अहम ब्रह्मास्मि’ अगर कोई साधक कहता है तो उसमे अहंकार पोषित हो सकता है | उसका अर्थ ही कुछ ऐसा है यहां किसी साधक में अहंकार को बढ़ावा मिल सकता है, अगर वो इसके वास्तविक अर्थ नहीं समझता या स्वयं को ब्रह्म और अन्य को अज्ञानी समझ लेता है | परंतु ‘तत् त्वम् असि’ से अवश्य ही ऐसे साधक में अहंकार का आभाव होने लगता है | अगर वह ब्रह्म है तो अन्य भी ब्रह्म ही है कोई ब्रह्म से अलग नहीं |

जीवन में ‘तत् त्वम् असि’ की समझ से लाभ

अगर कोई योगी और साधक ‘तत् त्वम् असि’ के यथार्थ ज्ञान को प्राप्त कर लेता है तो वह हर जीव, जंतु में मानव में और निर्जीव वस्तुओं में भी ब्रह्म को ही देखता है | जैसे अगर किसी को मिट्टी की समझ हो जाती है तो वह मिट्ठी के हर बर्तन को समझ सकता है की; इसे कैसे बनाया गया; इसका कारण क्या है |

उसी तरह से कोई योगी ब्रह्म का साक्षात्कार करता है तो उसे इस जगत का भी ज्ञान हो जाता है | वह सभी का कारण ब्रह्म ही जनता है वह सभी जीव, जंतु, पक्षी, पेड़ पौदा, फूल, जो कुछ भी उसके सामने है सब में ब्रह्म को ही देखता है | साधकों! ‘तत् त्वम् असि’ केवल मन की समझ का विषय नहीं है | इसे ऋषियों ने साधना मे सिद्धि प्राप्त कर खोजा है | इसलिए इसका वास्तविक अर्थ आध्यात्मिक अनुभव में सामने आता है | मन और बुद्धि से हम बस इसका अंदाजा लगा सकते है | लेकिन इसका यथार्थ दर्शन या अनुभव नहीं कर सकते| वो केवल ब्रह्मज्ञान (आत्मज्ञान) से ही संभव है |

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