भगवान के जो भक्त इन दैवी गुणों से पूर्ण होते है इनपर भगवान की असीम कृपा बरसती है । भगवान की शुद्ध भक्ति के अद्भुत लाभ हैं स्वयं भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है की वह अपने भक्तों का शीघ्र ही भवसागर के बंधनों से मुक्ति और उद्धार करते है।
साधकों! जिसके पुण्य उदय हो जाते हैं उन्हें ही भगवान की भक्ति प्राप्त होती है इसमें कोई संदेह नहीं, भगवान की कृपा के बिना कोई भगवान का नामजप ही नहीं सकता, अगर आपने भी ये भाग्य पाया है तो आपको यह लेख अवश्य पढ़ना चाहिए क्योंकि मैंने यहाँ कुछ ऐसे दैवी गुण बताए है जो भगवान के सच्चे यानी की शुद्ध भक्तों में ही देखने को मिलते हैं।
भगवान की सच्ची भक्तिके लक्षण या संकेत | Sacchi Bhakti Kya Hai:
यहाँ कुछ दैवी गुण बताए गए है जो भगवान के भक्तों में अवश्य देखने को मिलते है।
सांसारिक विषयों से वैराग्य :
भगवान के अनन्य भक्त कभी सांसारिक विषयों का चिंतन नहीं करते परंतु भगवान का ही चिंतन करते है । उन्हें भगवान के भक्ति में ही आनंद प्राप्त होता है, साधकों! जब कोई भक्त प्रेमपूर्वक समर्पण करता है वह स्वयं के लिए कुछ भी नहीं चाहता वह निस्वार्थ हो जाता है । भगवान के सच्चे या शुद्ध भक्तों का यह एक अद्भुत गुण है । इसे ही शुद्ध भक्ति कहा जाता हैं । जो किसी भी तरह से अशुद्ध नहीं है यानी सांसारिक विषयों की आसक्ति या वासना और इनका चिंतन उनमें नहीं हैं।
तपस्या करना :
तप एक दैवी गुण है, लेकिन हमें तपस्या का अर्थ केवल वह नहीं समझना चाहिए जैसे दूर हिमालय पर जाकर या कहीं और जाकर कठिन वातावरण या परिश्रम करना, तपस्या का अर्थ है किसी उत्तम कार्य के लिए किया गया परिश्रम, भगवान के भक्त तपस्या करते है । जो स्वयं के मन को सांसारिक विषयों से हटाकर भगवान की में लीन होते है। इसे भी तपस्या ही कहा जाता हैं। जो मोक्ष या मुक्ति के लिए करते है। यही योगी का तप हैं।
अहंकार का अभाव :
भगवान के भक्ति के कारण उनके अहंकार का अभाव होता हैं, जब कोई भक्त भगवान के लिए समर्पण करता है वह अपने अहंकार को पोषित नहीं करता, परंतु भगवान को स्वयं से बड़ा और श्रेष्ठ मानता हैं, इसी कारण उनमें अहंकार का अभाव होता हैं,
जो व्यक्ति स्वयं को सबसे श्रेष्ठ मानता है वह भगवान के समीप नहीं होता, उसमे अहंकार पोषित होता है जो बाद में उसे ही दुख देता हैं, किसी महापुरुष ने कहा है “तूफानों में वही पेड़ टिक जाते हैं जो झुक जाते है।” इसी लिए जीवन में महत्वपूर्ण सरलता और समर्पण से ही अहंकार का अभाव होता हैं।
भक्ति में एक क्षण का भी वियोग सहन नहीं कर पाता:
भगवान के अनन्य भक्त भक्ति में एक क्षण का भी वियोग नहीं करते है। वे सदैव भगवान की भक्ति में लीन रहते हैं, इतिहास में ऐसे कई अनन्य भक्त हुए हैं जैसे संत मीराबाई, चैतन्य महाप्रभु, संत तुकाराम यह निरंतर चिंतन में स्थित होते थे। यह एक अंतकरण की ऐसी अवस्था है जिसमे भक्त भगवान से क्षण के लिए भी अलग नहीं होता , अगर किसी कारणवश वह अलग हो भी जाए तो वह पुनः उन अनावश्यक विषयों का विद्रोह कर भगवान से जुड़ जाता हैं। बिलकुल उसी तरह जैसे एक सुई चुबक से अलग नहीं होती और अगर बलपूर्वक अलग की भी जाएं तो पुनः वह चुंबक के स्वभाव कारण उससे जुड़ जाती हैं।
भगवान का निरंतर चिंतन करना:
अनन्य भक्त निरंतर भगवान का चिंतन करते है। वह भगवान से पल ले लिए भी अलग नहीं होते। जैसे अज्ञानी लोग सांसारिक विषयों के चिंतन में लगे रहते हैं वे अज्ञानी निरंतर अपनी कामनाओं को पूर्ण करने किए विचार और कर्म करते हैं, अनन्य भक्त किसी भी तरह के कामना को पूर्ण करने की चेष्टा नहीं करते और भगवान के ध्यान में लीन रहते हैं । वे कर्म भी निस्वार्थ करते हैं जिसमे वह अपना लाभ नहीं देखते और केवल भगवान के लिए कर्म करते है।
भगवान पर अटूट विश्वास करना:
शुद्ध भक्त भगवान पर अटूट विश्वास करते है । वह किसी भी कारणवश या किसी भी स्थिति में भगवान से अलग नहीं होते हैं, जैसे कुछ लोग का कठिन परिस्थिति आने पर क्रोध या दुख के कारण विश्वास टूट जाता हैं। सच्चे भक्तों के साथ ऐसा नहीं होता। आपको पता ही होंगा जब भगवान विष्णु के परम भक्त प्रह्लाद कठिन परिस्थिति में था फिर भी उसे विश्वास कोई ठेच नहीं पहुंची थी। भगवान विष्णु से ईर्षा के कारण दैत्य हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को मृत्यु दण्ड देने के लिए कई उपाय किए उसे कारागृह में विषैले सर्पों के बीच डाल दिया और गहरी खाई में भी फेक दिया फिर भी प्रह्लाद के भक्ति पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। वह प्रह्लाद का अटूट विश्वास था।
हमेशा संतुष्ट और शांत रहना :
साधकों! भगवान के परम भक्त सदैव संतुष्ट और शांत रहना पसंद करते है, और जो लोग भगवान के भक्त की संगति में रहते हैं यह गुण उनमें भी आ सकता है। भगवान के भक्तों को वाणी मधुर होती हैं वह किसी से ईर्षा, क्रोध या घृणा नहीं करते।
शांत और संतुष्ट न रहने का कारण सांसारिक विषयों और वासना ही है जो इन्हें भोगने चाहता है और योग से दूर जो जाता हैं और उसका जीवन अशांति से भर जाता हैं,
भगवान के भक्त सांसारिक विषयों का और वासनाओं का त्याग कर और भगवान के प्रति समर्पण कर ही भक्त बनते है जिससे उनकी अंतरिक शांति भंग होने का कोई कारण नहीं होता।
भगवान को सर्वत्र अनुभव करना:
अनन्य भक्तों का सर्वत्र भगवत भाव होता है उन्हें सभी जीवों में चाहे वह हाथी हो या चिटी, कुत्ता, बैल, वृक्ष चांडाल के साथ सभी जीवों में और संसार में भगवान (परमात्मा) का ही अंश देखता है वह ज्ञान के द्वारा यह जान जाता है भगवान सभी जीवों के पालनहार है अर्थात वह सभी जीव भगवान के अंश ही हैं, वह ऐसा भक्त कभी भी भगवान के लिए अदृश्य नहीं होता और इस भक्त के लिए भी भगवान अदृश्य नहीं होते, जो भगवान को ही अपना परम लक्ष बनता हैं, वह उसे सब और केवल भगवान ही अनुभव होते हैं चाहे वह रात्रि के अंधकार हो या दिन का प्रकाश वह कभी भगवान से अलग नहीं होता यह भगवान की कृपा उनके भक्त पर कृपा और प्रेम ही हैं।
भक्तों को प्राप्त होती है वास्तविक निर्भयता :
अनन्य भक्ति और अटूट विश्वास के कारण भक्तों को वास्तविक निर्भयता प्राप्त होती हैं, संसार का बड़े से बड़ा संकट भी उन्हें अशांत या विचलित नहीं कर सकता, उनके लिए जीवन-मृत्यु, लाभ-हानि एक समान है। वह यह भली भांति जानते है जिन विषयों के कारण भय निर्माण होता है वह नश्वर ही हैं, इसी लिए वह उन नश्वर विषयों या वस्तुओं की चिंता नहीं करते और भगवान के प्रति समर्पण करते हैं।
भगवान के ऐसे कई निर्भय भक्तों के बारें में हमें जानने को मिलता हैं
आपको पता होंगा! जब प्रह्लाद पर उसे पिता हिरण्यकशिपु के कारण संकट था तब हिरण्यकशिपु ने उसे हरीभक्ति बंद न करने पर भयानक दंड दिए। फिर भी प्रह्लाद निर्भयता पूर्वक भक्ति में लगा रहा। भगवान ने सभी संकटों से प्रह्लाद को रक्षा की।
संत मीराबाई को उसके ससुराल वालों ने विष का प्याला दे दिया फिर भी मीराबाई पर उसका कोई असर नहीं हुआ उसने वह पी लिया भगवान की कृपा के कारण वह विष मीरा के लिए अमृत समान हो गया।
निष्कर्ष,
भगवान के सच्चे और शुद्ध भक्तों में दैवी गुण होते हैं। जिसमे सत्यता, वैराग्य, दया, शांति, संतुष्टि, क्षमा, अहंकार का अभाव, भगवान के लिए अटूट विश्वास, तपस्या और त्याग इत्यादि,
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