परमात्मा का स्वरूप
परमात्मा संपूर्ण जीवों के शरीर के साथ संपूर्ण जगत को धारण करने वाली पवित्र आत्मा हैं, यह परमात्मा केवल एक हैं। यह कण-कण में विराजमान हैं । परमात्मा के बिना इस जगत की कल्पना भी नहीं की जा सकती । बिना इसके कुछ भी संभव नहीं हैं।
हम अपनी आस-पास के जगत को देखे तो पाएंगे संपूर्ण जगत जीवों और निर्जीव वस्तुओं में गतिशीलता या जागरूकता (चेतना) हैं। जगत का हर अनु गतिशील हैं। इसे हम चेतना भी कह सकते हैं यह चेतना समस्त जगत में व्याप्त हैं।
यह चेतना जो जगत में व्याप्त है यह परमात्मा का लक्षण हैं, बिलकुल उसी तरह जैसे प्रज्वलित अग्नि का लक्षण गर्मी तैयार करना होता हैं।
परमात्मा निर्गुण, निराकार, सर्वव्यापी है। परमात्मा प्रकाश स्वरूप जान पड़ता है । परमात्मा के इस तेज को आंखों , समस्त इन्द्रियों तथा यंत्रों से भी जानना संभव नहीं है. इस तेजस्वी परमात्मा को जानने के लिए भौतिक संसार का त्याग कर परमात्मा में विलीन होने की आवश्कता हैं।
आत्म में परमात्मा के दर्शन
परमात्मा सभी जीवों को धारण पोषण करता है। यह सभी जीवों के हृदय में आसिन हैं। जीव परमात्मा से वंचित मानते है किंतु जीवों का परम स्वरूप ही परमात्मा होता हैं।
स्वयं के भीतर के परमात्मा को जानने के लिए स्वयं को जीव से भिन्न जानकर परमात्मा में विलीन होने की आवश्कता हैं।
जीव अज्ञान के अंधकार के भटके होते हैं। परमात्मा से स्वयं को भिन्न जानना ही यह अज्ञान का अंधकार हैं। वास्तव में परमात्मा जीवों से अभिन्न हैं, परमात्मा जीवों का परम सत्य स्वरूप ही हैं.
मन की अज्ञानता के कारण जीव स्वयं को भौतिक शरीर जानते हैं मन इन्द्रियों ( आंखे , कान, जीभ, नाक, त्वचा) से सूचना प्राप्त करता हैं। जिस कारण जन्म से ही अज्ञान का अंधकार उत्पन्न होता हैं। और वह स्वयं को इंद्रियां और भौतिक शरीर जनता हैं।
वास्तव में सभी जीवों के मन बुद्धि और इंद्रियों को परमात्मा ही धारण करने वाला होता हैं। परमात्मा शरीर को धारण करता है किंतु यह जीवों की तरह स्वयं को शरीर नहीं जनता, यह वही परमात्मा है जो अनंत जगत मे व्याप्त हैं।
सभी जीवों के साथ हम आप स्वयं परमात्मा है। चराचर में व्याप्त हैं। किंतु मन के अज्ञान के कारण, सत्य से भिन्न जानते हैं।
परमात्मा से भिन्न जानने वाला मन है। अहंकार की भावना, सांसारिक विषयों से आसक्ति और संपूर्ण जगत का एक मात्र भोक्ता बनना, ये गुण जीवों के मन के कारण उत्पन्न होते हैं।
परमात्मा मन से भिन्न है । मन के इन गुणों का त्याग करके मन को मौन (विलीन) किया जा सकता है, और मन से परे परमात्मा को स्वयं से अभिन्न जाना जाता हैं। इस अवस्था को धारण करने वाला पुरुष स्तिथप्रज्ञ कहा जाता हैं। इसे ही समाधि, मोक्ष आत्मज्ञान कहा जाता है।
मन को नियंत्रित कर योग में सिद्धि प्राप्त कर मुक्ति का ज्ञान रखने वाला पुरुष एक योगी आचार्य होता हैं। जो गुरु मानने के योग्य हैं।
जीव और परमात्मा में अंतर
परमात्मा सभी जीवों को धारण पोषण करने वाली पवित्र आत्मा हैं। आत्म को जीव के शरीर (इंद्रियां , मन) से भिन्न जानकर आत्म में परमात्म के दर्शन प्राप्त होते हैं और जीव और परमात्मा में अंतर को जाना जाता हैं।
जीव ( अज्ञान के लक्षण ) | परमात्मा |
स्वयं को शरीर जनता हैं. | परमात्मा निर्गुण, निर्लेप, निराकार, अनंत और शाश्वत है। |
सम्पूर्ण संसार का भोक्ता बनता हैं। | परमात्मा त्यागी और संतुष्ट हैं |
सुख और दुख के अधीन होता हैं। | परमात्मा सुख-दुख से परे आनंदस्वरूप है |
जीव में अहम के अहंकार ( स्वयं के "मैं शरीर" मानना ) हैं | परमात्मा अहंकार रहित है और सच्चिदानंद ( सत् चित् आनंद) स्वरूप हैं। |
जीव मन के कारण निरंतर बदलता रहता है। | सदा एक जैसा रहने वाला है। |
भौतिक संसार में बंधी है। | परमात्मा जगत से परे पवित्र आत्मा है। |
आसक्ति, अहंकार, तथा अज्ञान के कारण सत्य से वंचित हैं। | परमात्मा ज्ञानस्वरूप, सत्यस्वरूप है। |
जीवों के भौतिक शरीर असत् ( मिथ्या ) हैं। | परमात्मा सत् (परम सत्य) हैं। |
परमात्मा की प्राप्ति के उपाय
परमात्मा को प्राप्त होने के लिए मोक्ष , समाधि को प्राप्त होने की आवश्कता है। ध्यान तथा योग से समाधी के पथ पर आगे बढ़ा जा सकता हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने संसार से मुक्त होकर परामगति (मोक्ष) को प्राप्त होने के लिए जीवन में निष्कामकर्मयोग, भक्तियोग और ध्यानयोग का महत्व श्रीमदभागवतगीता में कहा हैं।
निष्काम कर्मयोग :
व्यक्ति जीवन में कर्म करता हैं, और कर्म के फल के प्राप्ति के लिए उससे आसक्त हो जाता हैं। इस आसक्ति से वे मोक्ष से वंचित रहते हैं । कर्म कर फल की इच्छा करना और उस फल से आसक्त रहना सकाम कर्म कहा जाता हैं ये जीव का बन्धन है ।
कर्म कर फल की इच्छा को मन से त्याग देना निष्कामकर्म कहां गया है। इस तरह से कर्म कर वे कर्म के बंधन से मुक्त होकर वे मोक्ष के पथ पर अग्रसर होता हैं।
भक्तियोग :
भक्तियोग मोक्ष प्राप्त कर परमात्मा में विलीन होने का श्रेष्ठ साधन हैं। प्रेम और भक्ति को जीवन में अपनाकर व्यक्ति पूर्णसमर्पण के पथ पर बढ़ता हैं। और शीघ्र ही परमात्मा को प्राप्त हो जाता हैं। किंतु भक्ति हो या प्रेम इसमें कोई कामना नहीं होनी चाहिए।
मन को एकाग्र कर भगवान-नाम जाप और मंत्र-जाप मोक्ष को प्राप्त करना उत्कृष्ट साधन माने जाते है।
ध्यानयोग :
मन के कारण भौतिक संसार से आसक्तियां उत्पन्न होते हैं। जी संसार मुक्ति (मोक्ष) से वंचित रखते हैं। इन सांसारिक आसक्तियों को मन से त्यागने की आवश्कता हैं। ध्यान करते समय मन को आसक्तियोंसे हटाकर ध्यान में केंद्रित करने का अभ्यास कीजिए।
ध्यान करते समय मन को एकाग्र करने से मन को त्यागने का अभ्यास होता है और ध्यान में सिद्धि प्राप्त होती है। तथा मोक्ष के पथ पर आगे बढ़ा जाता है।
निष्कर्ष;
परमात्मा सभी जीवों को धारण और पोषण करता है। मन के अज्ञान के कारण जीव परमात्मा विमुख होकर संसार में वर्तता हैं। योग के द्वारा आत्म में परमात्मा के दर्शन प्राप्त होते है तरह ध्यान से समाधी की और बढ़ा जाता हैं।
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