माया का स्वरूप क्या है
माया भगवान कृष्ण की शक्ति है; भगवान कृष्ण परमात्मा है | भगवान श्री कृष्ण सत् चित् आनंद स्वरूप है और माया त्रिगुणात्मक है | जो संसार हम देखते है यह माया के अधीन है इसमें जो भी कार्य कार्यकलाप होते हैं सब माया के अधीन ही संपन्न होते है |
अगर अज्ञानता के नजर से देखा जाए तो माया अनादि और अविनाशी भी है, लेकिन अगर ज्ञान से जानें तो माया स्वरूप नहीं केवल परमात्मा है |
माया और परमात्मा के अंतर केवल हमारे देखने और समझने से है अगर हम अज्ञानता वश इस अनंत ब्रह्मांड को देखें तो यह सब माया है; परमात्मा यहां कहीं नहीं है और अगर वहीं ज्ञान (आत्मज्ञान) से जानें तो केवल परमात्मा है माया कहीं नहीं है |
माया क्या है आइए इसे दो उदाहरणों से समझने का प्रयास करते है
उदाहरण 1.
मान लीजिए एक व्यक्ति सड़क से कहीं जा रहें है रात्रि के अंधकार में चंद्र की हल्की रोशनी से आगे की सड़क दिख रहें है | सड़क के बगल एक पेड़ है पेड़ के डाली पर सांप जैसा कुछ लटक रहा है और हिल-डुल रहा है |
दूर से देखने पर उसे वह सांप लगा वह बहुत डर गया और उसने अपने कदम पीछे खींच लिए | जब वह थोड़ा आगे गया और उसने अच्छे से देखा तो वह सांप नहीं था वह एक रस्सी का टुकड़ा था जो हवा के कारण हिल रहा था | उस व्यक्ति ने बाद में सोचा; मैं बेकार में डर कर पीछे हट गया |
अज्ञान के कारण इस व्यक्ति को वह रस्सी सांप लगी लेकिन सांप वहां था नहीं; रस्सी थी | इसी तरह आप इस संसार में जो कुछ भी देखते है अपने परिवार, मित्र घर, जमीन, जायदाद यहां तक हवा, पानी, पृथ्वी, चंद्र, सूर्य, तारे सब कुछ परमात्मा ही है लेकिन अज्ञान के कारण वह संसार जान पड़ता है | यह अज्ञान इस लिए है क्योंकी मनुष्य हमेशा आंख देखी, कान सुनी बात पर ही विश्वास करता है | परमात्मा को आंख, कान और बाकी इंद्रियों से नहीं जाना जा सकता |
उदाहरण 2.
एक पेड़, पलंग, कुर्सी, टेबल, अलमारी, दरवाजा, खिड़की, घर, पेंसिल सब अलग-अलग वस्तु है | लेकिन ये सब अलग-अलग होते हुए भी एक ही है | इनके अकार प्रकार अलग है लेकिन सब तो लकड़ी ही है |
उसी तरह इस संसार में अनगिनत गुण और आकार की वस्तुएं है, शरीर है लेकिन ये सब इस परमात्मा के ही है | वह एक ही परमात्मा सबकों धारण पोषण करता है; वह सबका पालनहार है|
मनुष्य अज्ञान के कारण इनमें भेद करता है, जैसे प्रिय अप्रिय, मित्र, शत्रु, मैं, तुम, वे, कुत्ता, बिल्ली, मनुष्य, बंदर, सुख, दुख, मान, अपमान सब अलग-अलग लगता है ना? लेकिन ये सब मूल अविद्या के कारण है |
जो व्यक्ति इन सब को समान जानता है वह परमात्मा का दर्शन करता है, वह एक तत्वज्ञानी यानी आत्मज्ञानी ही होता है हो संसार की हर वस्तु , हर जीव, हर तत्व को समान देखता है यहां तक कि वह ज्ञानी स्वयं को भी इनसे अलग नहीं जानता; वह अहंकार रहित होता है |
माया त्रिगुणात्मक है परंतु परमात्मा तीनों गुणों के परे है इस संसार में जो कुछ है वो चाहें अनंत ब्रह्मांड भी हों लेकिन सब माया के तीन गुणों के अधीन है अगर उनका उगम हुए है तो अंत भी निश्चित है |
सत, रज और तम ये माया के तीन गुण है ब्रह्मांड में जितने भी जीव, देवता, गंधर्व इन तीन गुणों आधीन उनका अपना व्यक्तिगत अस्तित्व है और सब कार्य करते है लेकिन परमात्मा ही माया के अधीन नहीं बल्कि ये तीन गुण परमात्मा के आधीन है |
माया के तीन गुण
सत वह गुण है जहां ज्ञान, बुद्धि, विविक है |
रज में असीम तृष्णा, आसक्ति और सकाम कर्म है |
तम यानी निद्रा, अज्ञान का घोर अन्धकार, आलस है |
ये तीन गुण मिलाकर मनुष्य, जीव, जंतु, देवता, दानव और सम्पूर्ण संसार को चलाते है, माया के ये तीन गुण परमात्मा के सत, चित, आनंद स्वरूप के कारण ही व्यक्त होते है |
परमात्मा और माया तो अलग-अलग तत्व नहीं है लेकिन परमात्मा का परमात्मा में ही अज्ञान माया है |
परमात्मा पर माया का आवरण क्यों जान पड़ता है?
इसका उत्तर बहुत आसन है परमात्मा पर माया का आवरण नहीं जान पड़ता बल्कि मनुष्य और पशु पक्षी परमात्मा में माया को जानते है; धोका हो जाता है | इसका कारण समझना भी बहुत आसन है | परमात्मा एक है लेकिन मनुष्य हर चीज को अलग-अलग देखता है | इस कारण परमात्मा में ही यह धोका हो जाता है जिसे विद्वानों ने माया कहा |
जो कहता है की “मैं आंखों देखी, कानों सुनी बात को ही सच मानूंगा” तो वह आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्ति करने वाला साधक नहीं है, आध्यात्मिक ज्ञान तो भीतर से ही प्राप्त हो सकता है |
जो परमात्मा अनंत ब्रह्मांड को धारण करता है वह क्या मनुष्य के आंखों, कानों या बुद्धि के अधीन है?
परमात्मा को जानने के लिए श्रद्धा और आत्म-समर्पण की आवश्कता है | श्रद्धा ही वह सीढ़ी है जो परमात्मा के परम धाम तक जाती है और आत्म-समर्पण ही परमात्मा को आमंत्रण देता है; परमात्मा अहंकार रहित है और आत्म-समर्पण अंधकार जैसे अज्ञान और अहंकार को हटाने वाला प्रकाश है |
अगर कोई व्यक्ति ‘स्वयं’ को संपूर्ण संसार को अद्वैत जानता है तो वह तुरंत ही परमात्मा के सत, चित, आनंद स्वरुप को प्राप्त हो जाता है |
परमात्मा के प्राप्ति के लिए कई उपाय है जैसे भक्तियोग, कर्मयोग, ध्यानयोग, ज्ञानयोग इन्हें साधन बनाकर वह अज्ञान के बंधनों से मुक्ति पा सकता है | अज्ञान का बंधन कुछ और नहीं बल्कि व्यक्ति का अपना मन ही होता है जिसमे अज्ञान जमा होता रहता है | लेकिन इस अज्ञान को योग अभ्यास के द्वारा दूर किया जा सकता है |
माया में इतने दुख क्यों है?
जब भी किसी के जीवन में दुख आता है इसका मूल कारण अज्ञान ही होता है | दुख के कई कारण हो सकते है लेकिन मूल कारण हमेशा एक होता है; संसार में द्वैत भाव देखना या ‘स्वयं’ को संसार से अलग जानना | यही से अलग-अलग तरह के दुखों की उत्पत्ति होती है |
इस संसार में जो कुछ होता है वह निश्चित होता है वह जन्म हो या मृत्यु, लाभ, हानि, मान अपमान व्यक्ति अज्ञान के कारण इनमें जितना अंतर करता है वह उतना ही दुखी हो जाता है |
अज्ञान का घोर अन्धकार माया में क्यों?
माया में अज्ञान का घोर अन्धकार है यह बिल्कुल सही है क्योंकि माया ही मूल-अज्ञान है अज्ञान को मूल रखकर जो कुछ जानेंगे वह अज्ञान ही होंगा | अगर बबुल का बीज बोयेंगे तो बबुल ही पाएंगे क्योंकि मूल ही वह है |
व्यक्ति अगर भौतिक शरीर और अहंकार को वास्तत्विक अस्तित्व परमात्मा अलग कुछ जानने लग जाएगा तो वह मूल अज्ञान ही है फिर कहा परमात्मा? केवल माया ही है |
अगर ‘मैं’ परमात्मा से अलग कुछ है तो परमात्मा कहा मिलेंगे? वह अद्वैत है | संपूर्ण संसार का आधार है | माया कारण परमात्मा को प्राप्त होना बहुत कठिन या लगभग असंभव ही जो जाता है | इस संसार में ऐसे जीव खोजना ज्यादा कठिन नहीं है बल्कि कोई ज्ञानी खोजना कठिन हो सकता है |
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