दर्शनों के अनुसार कहा जाता है की जीवों का अंतिम सत्य मृत्यु नही है मृत्यु के बाद भी जीव पुनः जन्म लेकर इस संसार में आते है | इसको पुनर्जन्म कहा जाता है कई दार्शनिकों का कहना है की पुनर्जन्म एक विज्ञान है | पुनर्जन्म कैसे होता है? क्या पुनर्जन्म सच में होता है? जानिए
क्या पुनर्जन्म होता है?
पुनर्जन्म का सिद्धांत नया नहीं यह हजारों साल पुराने दर्शन से आता है | लेकिन कई लोगों का इसपर विश्वास नहीं होता और कई लोग ऐसे है जो इसपर बिना इसके कारण को जाने विश्वास कर लेते है |
आप सोचते है की “मैं मरने के बाद पुनः पैदा हो जाऊंगा” या फिर आप ऐसा सोचते है की “कोई पुनर्जन्म नहीं होता यह जन्म ही पहला और आखरी जन्म है” | तो ये दोनों भी बाते व्यक्ति को बस मान्यता में ही बांधी रखती है | कोई भी बात बस मान लेने से सच या झूठ नहीं हो जाती |
एक पेड़ पर नए पत्ते लगते है और पुराने पत्ते टूटकर गिर जाते है | इसे हम ऐसा नहीं कह सकते जो पत्ता टूटकर गिर गया और समाप्त हो गया वह पत्ता फिर पेड़ पर उग जाएगा | और इसे हम ऐसा भी नहीं कह सकते की जो पत्ता गिरकर समाप्त हो गया वह पुनः कभी नहीं आयेगा |
मान लीजिए उस पत्ते का उपयोग औषधि बनाने के लिए किया जाता है कोई इंसान बीमार हो गया उसने उस पत्ती का उपयोग कर औषधि बना ली | कुछ साल बाद उसका एक मित्र भी बीमार हो गया | और उसने कहा की “इस तरह की पत्ती से मैंने दवाई बनाई और मैं ठीक हो गया तुम भी वैसा ही करों तुम भी ठीक हो जाओगे” | अब वह दूसरा व्यक्ति ऐसा तो नहीं कह सकता की तुमने जिस पत्ती का उपयोग कर लिया वह पत्ती तो नष्ट हो गई | अब मुझे वह पत्ती कहा मिलेंगी | असल में उस तरह की पत्ती तो कई मिल जायेगी | जो गुण एक पत्ते में होते है वही गुण दूसरे पत्ते में भी हो सकते हैं | लेकिन नए पत्ते के बनने का कारण पुराना पत्ता नहीं है वे दोनों के बनाने का कारण पेड़ है |
इसी तरह से अगर जीव हर समय मर रहें है तो नए जीव भी पैदा हो रहें है | इनमें से कई जीवों में समान गुण पाए जा सकते है | जैसे कोई सतोगुणी है तो कोई रजोगुणी तो कोई तपोगुनी बस अंतर सिर्फ नाम, रूप, शरीर और पहचान का ही होता है |
मान लीजिए अगर कोई व्यक्ति किसी समय धन में बहुत आसक्त था वह निरंतर धन के बारे में ही सोचता रहता था धन को ही जमा करने में उसका जीवन खत्म हो गया और कुछ साल बाद एक दूसरा व्यक्ति आया दोनों में कोई अंतर नहीं था दोनों के गुण समान थे दोनों का मन समान था बुद्धि, आसक्ति भी समान थी | तो इसमें और उसमें क्या अंतर है बस शरीर, नाम, रूप और पहचान का ही अंतर है, तो क्या इसे हम पुनर्जन्म नहीं कह सकते?
लेकिन पहला व्यक्ति था वह तो समाप्त हो गया और बाद में उसी तरह का एक दूसरा व्यक्ति आ गया तो क्या इसे बनाने वाला पहला था, नहीं दोनों को प्रकृति ने बनाया | वे दोनों एक दूसरे को बनाने वालें नहीं है |
अगर हम इसे पुनर्जन्म मान ले तो भी ये गलत नहीं हो सकता और अगर नहीं माने तो भी ये गलत नहीं है | पुनर्जन्म तो हुआ; लेकिन उस व्यक्ति का नहीं हुआ उसके गुणों का हुआ | तो इसे हम ऐसा भी कह सकते जो मरा था उसने फिर जन्म लिया और वह वापिस इस संसार में आ गया और इसे ऐसा भी कह सकते है की जो मरा उसका पुनर्जन्म नहीं हुआ उसके जैसे ही गुणों के साथ दूसरा आ गया |
जब पेड़ से एक पत्ता गिर कर समाप्त हो जाता है तो दूसरे पत्ते भी पेड़ पर उग जाते है | सभी पत्ते ही है इनमें कोई भेद नहीं | लेकिन अगर हम किसी खास पत्ते को की नाम दे देते है ऊपर कुछ लिख देते है | एक दिन वह पत्ता झड़कर समाप्त हो जाता है | तो पेड़ पर कोई ऐसा पत्ता नहीं उग कर आयेगा जिसपर कोई नाम लिखा हों | लेकिन जैसे प्रकृति इसे बनाती है वैसा अवश्य आ जाएगा और एक बार नहीं लाखों बार आयेगा जब तक पेड़ है |
पुनर्जन्म कैसे होता है?
पुनर्जन्म का सिद्धांत उन्हीं तत्वज्ञानियों ने लाया जिन्होंने सत्य के दर्शन करे थे | जो साधक थे उन्होंने इसके कारण पर गहराई विचार किया | आम लोगों ने केवल इसपर विश्वास किया या इसे नकारने लगे |
इसी तरह आप चाहें इसपर विश्वास कर सकते है इसे नकार सकते है या इसके कारण पर गहराई से विचार कर सकते है | कोई भी गलत उत्तर गलत नहीं है | अलग-अलग दृष्टिकोण से सभी को सही माना जा सकता है |
हम भारतीय दर्शन के अनुसार पुनर्जन्म के सिद्धान्त को जानने का प्रयत्न कर रहें है | लेकिन भारतीय दर्शन आत्मा का निरूपण करते है इसलिए पुनर्जन्म को समझने के लिए आत्मा के स्वरूप को समझना आवश्यक है, बीमा आत्मा के सत्य स्वरूप को जाने कोई पुनर्जन्म के पर विचार नहीं कर सकता |
साधकों ! आत्मा को बाहरी दुनिया में नहीं जाना सकता आत्मा को स्वयं के अंदर ही अनुभव किया जा सकता है | क्योंकि वह आत्मा इसे जानने वालें का स्वरूप ही है |
आत्मा मन,बुद्धि इंद्रियां से परे है इसलिए उसके दर्शन करने के लिए आत्मज्ञान साधना करनी आवश्यक है | साधना में सिद्धि से आत्मज्ञान साक्षात्कार और वह साधक मन, विचारों से मुक्त हो जाता है वह इंद्रियों को बाहरी दुनिया से हटकर अपने स्वरूप में ही विलीन कर देता है |
उपनिषद,वेदांत और गीता कहते है आत्मा अद्वैत है | इसलिए जब पुनर्जन्म की बात की जाती है तो कहा जाता है, शरीर के मृत्यु के बाद आत्मा शरीर और मन धारण कर पुनर्जन्म ले लेती है |
आत्मा पूरी तरह से अभौतिक है वह सदैव एक जैसी रहने वाली है; अचल है | नित्य, निराकार, निर्गुण है | भौतिकता के परे उसका ही अनंत अस्तित्व है | वह अचिंत्य है |
इस संसार में जितने भी रूप, रंग की वस्तुएं है, जीव है सब आत्मा के ही है, सब धारण करने पर भी वह सबसे परे है वह निर्गुण है, निराकार है लेकिन सभी आकार और गुण का कारण होती है | इस माया जगत के परे वह अद्वैत आत्मा सत्य है |
कोई आम व्यक्ति जो साधना नहीं करता और अन्य जीवों की तरह मन, और अहम को सत्य मानकर जीवन जीने के लगा रहता है वह इस निर्गुण और पवित्र आत्मा के दर्शन नहीं कर सकता | क्योंकि वह साधक का ही पवित्र, गुनातीत स्वरूप है |
ऋषियों ने साधना में सिद्धि से इसके दर्शन किए और मन, तुष्णा, अज्ञान और अहमभाव (अहंकार) को ही अपने जन्म लेने का कारण समझकर ज्ञान से स्वयं को पवित्र कर संसार से मुक्त हो गए |
हर व्यक्ति इस परम मुक्ति को अपने जीवन में प्राप्त कर सकता है क्योंकि जन्म आत्मा का नहीं होता है जन्म मन, तृष्णा और अहमभाव का होता है | आत्मा तो केवल इसका कारण होता है जैसे परछाई का कारण आयना होता है | आयने में जो कुछ है वह परछाई है आयना नहीं | उसी तरह से संसार ने हो कुछ अज्ञानी देखता है वह त्रिगुणात्मिका माया है | पवित्र चैतन्य आत्मा माया के पार है |
जो साधक माया के बंधनों से मन को मुक्त कर लेता है वह मोक्ष को प्राप्त हो जाता है यह अभौतिक में ही विलीन होने जैसा है वह फिर भौतिक में नहीं आता | अभौतिक, मुक्त आनंद स्वरूप ही आत्मा का सत्य स्वरूप है वह परमआनंद है |
इसे जानकर हम ऐसा तो नहीं कह सकते की आत्मा का पुनर्जन्म होता है जो सदा से मुक्त है निर्गुण, निराकार है अभौतिक है | वह पुनर्जन्म क्यों लेगा? | और जो इसके विपरित है जिसमे तृष्णा है अहंकार, अज्ञान अहंभाव है वह जन्म लेता ही नहीं बल्कि उसका जन्म तो ही चुका है | और इसका जन्म पुनः नहीं होंगा बल्कि उसके गुण किसी और में देखें जायेंगे | जैसे अभी देखें जा रहे है |
आत्मा एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर धारण करती है इसका अर्थ यह नहीं की सभी जीवों की अपनी अलग-अलग आत्मा है | आत्मा यानी वह तत्व अद्वैत है | संसार के सभी जीव आत्मा में जन्म लेते है विकास करते है और अंत को प्राप्त हो जाते है | आत्मा जन्म नहीं लेती बल्कि जो मन और अहमभाव सृष्टि में है वह बनता है, टिकता है, मिटता है और यह पुनः पुनः चलता रहता है |
हम इसे पुनर्जन्म कहते है क्योंकि आत्म तत्व अजन्मा, नित्य, और अद्वैत है और जो जीव जन्म लेते है वह मन के बंधनों से मुक्त होकर सर्व चैतन्य आत्मा में ही स्थित हो सकते है | परंतु कई मनुष्य ऐसा न कर संसार को भोग में ही लगा रहता है और एक दिन मृत्यु को प्राप्त हो जाता है | ऐसे ही कई लोग और जीव इस संसार में जन्म लेते रहते है, मन के अज्ञान के कारण संसार के बंधनों में उलझ जाते है |
परंतु एक ज्ञानी व्यक्ति संसार में रहते हुए भी संसार के विषयों से आसक्त नहीं होता, वह अपने अहमभाव को छोड़ कर अनंत में विलीन हो जाता है और माया रूपी भौतिकता से परे हो जाता है | वह जन्म मृत्य के परे जाकर ज्ञान प्राप्त करता है और उसी में अहम को विलीन करता है |
अंतिम शब्द:
ऋषियों ने साधना से जाना है की शरीर और संसार से परे भी एक तत्व है जिसे आत्म तत्व कहते है | यह नित्य है और भौतिकता से परे है | भौतिकता के अज्ञान को दूर कर इस पद को मनुष्य साधना से प्राप्त हो सकता है | आत्मा सत्य और नित्य है लेकिन संसार में सभी जीव और वस्तुएं अनित्य है, भौतिक है और काल के आधीन है | संसारमें अहमभाव का जन्म होता है और अंत भी हो जाता है |