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भगवान के दर्शन कैसे होते हैं?

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जय श्रीकृष्ण साधकों,

इस वीडियो में हम चर्चा करेंगे की भक्तों और साधकों को भगवान का साक्षात्कार कैसे होता हैं?


वीडियो देखें 


 

भगवान के दर्शन कैसे होते हैं?

 

   Jivan ki Shuddhta    

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अगर आप ऐसा सोचते है, की “भगवान का दर्शन आंखों से किया जा सकता है”, तो आपको थोड़ा और जानने की आवश्यकता है।

जो आप स्वयं ही है उसे आंखों से कैसे देखा जा सकता है, जीव भगवान से अलग नहीं है।

लेकिन अपने कर्मों, और संस्कारों के कारण वह स्वयं को बहुत सीमित कर लेता है। अगर ठीक से जाने तो भगवान के सिवा दूसरा कोई तत्व नहीं है।

इसे एक उदाहरण से समझते है…

जैसे कुम्हार मिट्टी के बर्तन बनाते है, मूर्तियां बनाते है, और भी बहुत प्रकार की वस्तुएं बनाते है, मनुष्यों ने इन सभी वस्तुओं को अलग-अलग नाम दिए है, जैसे मटकी, दिया, सुराही, इनके उपयोग भी अलग है।

लेकिन क्या ये कुम्हार ने बनाई सभी वस्तुएं एक दूसरे से अलग है?

आप स्वयं विचार कीजिए!

सभी के नाम अलग है, रूप अलग है, उनके उपयोग भी अलग है, लेकिन वहां मिट्टी के सिवा दूसरा कुछ नही है। अगर हम इनके उपयोगों से परे जाकर, इनके रूप, रंग से परे होकर देखें तो सब एक ही है, यहां तक की जहां वे रखें है भूमि पर वह भूमि भी उनसे अलग नहीं है।

उसी तरह यहां लोगों ने अपने अलग-अलग नाम रख दिए है, रूप, रंग के भेद को मन में स्थान दे दिया है, लेकिन अगर कोई व्यक्ति इनसे मुक्त होकर देखें तो सब अद्वैत ब्रह्म ही है।

लेकिन इसे आम आंखों से देखा नही जा सकता, जो आंखें प्रकृति ने दी है उनसे सिर्फ प्रकृति को ही देखा जा सकता है, बुद्धि भी केवल इस दुनिया का ही चिंतन कर सकती है, लेकिन ज्ञान से इस प्रकृति से ही मुक्त हुआ जा सकता है।

मुक्त होकर योगी उसे जानता है जो वह स्वयं ही है। जो निरंजन है।

उसपर इस संसार का कोई बंधन नहीं है, अगर वो इस जीवन से मुक्त हो जाएंगा तो निश्चित ही वो मृत्यु से भी मुक्त हो जाएंगा।

जीवन और मृत्यु इस ब्रह्मांड के अंदर होती है, वह जिसे हम आंखों देखते है और बाकी इंद्रियों से जानते है, ब्रह्मांड में जो भी है, सबकी उत्पत्ति या जन्म हुआ है , और इनकी मृत्यु भी निश्चित है।

जीवन काल सबका अलग हो सकता है, लेकिन विनाश सबका ही होता है, चाहें वह जीव हो या निर्जीव वस्तु, अंत इस सम्पूर्ण ब्रह्मांड का ही होता है।

लेकिन अगर कोई योगी स्वयं के सत्य को जान लेता है,तो वह इस ब्रह्मांड के सत्य को भी जान लेता है। जो जन्म और मृत्यु का चक्र चल रहा है वो केवल एक भ्रम है, जो जीवों की सीमित, इंद्रियों और बुद्धि के कारण भासता है, वास्तविकता में यहां न किसी का जन्म होता न मृत्यु होती है, समग्र अस्तित्व अनादि है, समग्र अस्तित्व अद्वैत है।

अगर आप ये जान लेंगे की कुम्हार ने एक मटका कैसे बनाया है, तो आप ये भी जान लेंगे की उसने अपने दुकान के अलग-अलग नाम, रूप वाली सभी वस्तुओं को कैसे बनाया है।

इसके लिए आपको सभी को समझने के आवश्यकता नहीं है। बस एक मटके को पूरी तरह जान कर, इस कला का ज्ञान हो जाएगा।

मिट्टी उस मटके के बनने के साथ नहीं बनीं थी वह पहले भी थी, और अगर मटका फूट भी जाए तो मिट्टी होंगी,

इसी तरह योगी अपने आप को पूरी तरह जानकर ये भी जान लेता है की ये ब्रह्मांड क्या है? जो असल में बल्कि भगवान ही है।

लेकिन इस सत्य को जानना इतना सरल नही है और इतना कठिन भी नही है, कोई-कोई इसे बहुत सरलता से जान जाते है और कोई कोई सालो साल लगा देते है।

क्योंकि ये कोई बाहर की वस्तु की तरह जानना जितना सरल नही है, बाहर के प्रपंच को जानना भी इतना सरल नही है, लोग थोड़ा बहुत जान लेते है और सोचते है की सब जान लिया,

वे न तो स्वयं को पूरी तरह से जान पाते है और न प्रपंच को ही, और बीच में ही लटके हुए रह जाते है। ये जो बीच में लटके है इन्हें ही जीव कहा जाता है।

पशु-पक्षि तो इतने चैतन्य नही है के वे आत्म-निरूपण कर सके, लेकिन मनुष्य में ये सक्षमता होकर भी वे मूढमती बने घूमते है,

इनपर तमसा विराजती है, जैसे किसी पर आलस सवार हो जाएं तो वह, अपने कल्याण का भी काम नही करता, और स्वयं ही स्वयं का विनाश करने वाला हो जाता है,

वैसे ही इनपर अज्ञान हावी हो चुका है, जो लोग स्वयं को ज्ञानी मानते है, वे भी अज्ञानी है, जो स्वयं को ज्ञानी मानते है लोग उन्हें अज्ञानी की तरह जानते है।

ज्ञानी वह है जो संपूर्ण को सम्पूर्ण की तरह ही जानता है, या कम से कम वह जानने में लगा है, लेकिन अज्ञानी वह होते है संपूर्ण को सम्पूर्ण की तरह भी नही जानते और न जानने में ही लगे रहते है। इसलिए वे अपने ही बनाए धारणा में कारण बीच में लटके रहते है

देखिए जैसे सूर्य प्रकाश सफेद होता है, लेकिन उसमे सात अलग अलग रंग होते है जो इंद्रधनुष में देखे जा सकते है, अगर इन्हें अलग अलग देखे तो सफेद रंग नही दिखाई देगा, लेकिन इन सात रंगों को मिलाएं तो सिर्फ सफेद ही है। बाकी नही।

वैसे ही जो योगी ब्रह्मांड के साथ स्वयं को भी एक कर लेता है वह दिव्य ज्ञान प्राप्त करता है। उसके लिए जो अज्ञान का नाश हो जाता है,

उसी तरह जैसे सभी रंगों को मिलाने पर सिर्फ एक ही रंग सामने आता है। और उन्हें अलग कर दे तो सात रंग सामने आते है, और जो अठवा था वो चला जाता है,

वैसे ही साधकों आप भगवान को समझिए अगर आप इस दुनिया को पूरा जान लेंगे जहां तक है वहां तक, ये ब्रह्मांड तो क्या अनंत ब्रह्मांड भी छान डालेंगे लेकिन भगवान कहीं नहीं मिलने वालें, लेकिन अगर उसी का अद्वैत ज्ञान प्राप्त करेंगे तो सब कुछ भगवान ही जाने जाएंगे।

इसलिए भगवान के वास्तविक स्वरूप को आंखों के आगे नहीं देखा जा सकता, जब अर्जुन को भगवान कृष्ण ने अपना विराट रूप दिखाया था तो यह भी कहा था की “अर्जुन तुम इन नेत्रों से मुझे नही देख सकते। इसलिए मैं तुम्हें ज्ञान चक्षु प्रदान करता हूं”, अर्जुन ने भगवान का विश्वरूप स्वयं के भीतर ही देखा था।

जीव ब्रह्म से अलग नहीं, लेकिन चित्त के कारण वह स्वयं को जीव मानता है, वह चित्त में जीव को रख देता है। जैसे किसी डब्बे में कोई वस्तु रखी हुई होती है तो लोग कहते है की इसमें ये वस्तु रखी हुई है, लेकिन वह यह नहीं जानता की डब्बे में खाली जगह भी है इसलिए लिए उस वस्तु का वहां रखा होना संभव हुआ,

वैसे ही चित्त, चेतना है, लेकिन इस चेतना में ‘जीव’ नाम का अज्ञान रखा गया है, अज्ञानी केवल चेतना में प्रकाशित होने वाले जीव को समझते है, वे ये नही जानते है की जीव के परे भी चेतना है।

बिना ध्यान और साधना किए वे मानते है की जीव मूल है, और उससे चेतना प्रकट होती है, लेकिन वास्तविकता में मूल में जाकर देखेंगे तो जीव केवल एक भ्रांति है, चेतना इससे परे है। वह निरंजन है,

यह निरंजन चेतना, चैतन्य स्वरूप यानी भगवान से अलग नहीं है, इसलिए जो ज्ञानी जीव के परे चेतना का अमृत पान करते है, वे भगवान को प्राप्त हो जाते है। उनके लिए अज्ञान नहीं होता। केवल ज्ञान होता है।

जो साधक आध्यात्मिक जागरूक है, वे अद्वैत का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा रखते है, यह भगवान की उनपर कृपा ही समझनी चाहिए, वे ज्ञान, ध्यान, भक्ति इन योग अभ्यासों से और अद्वैत ज्ञान प्राप्त किए गुरुओं से उपदेश लेते है।

लेकिन जो अज्ञानी है वे जीवन भर शंका करने में ही लगे रहते है, वे उन केकड़ो की तरह है, जो दूसरों को नीचे खींच लेते है, वे असत में निष्ठा रखने वाले है, इसलिए साधक को इसकी संगत का स्वयं पर प्रभाव नहीं होने देना चाइए। वे लोगों को आध्यात्मिक सुख से भ्रष्ट करने वालें है क्योंकि वे स्वयं भी भ्रष्ट है।

यह आज की नई बात नही है ऐसे मूढ़मती हजारों वर्षों से इस धरती पर पैदा हुएं है, जिन्होंने अपने असत्य धारणाओं के कारण संतों को बहुत यातनाएं दी है, आज भी ये चेष्टाएं करते है।

साधक को चाइए को वह संतों की संगत करे, गुरु से मार्गदर्शन करे और श्रद्धा पूर्वक साधना करें। स्वयं स्वयंका उद्धारक बने। दुखरूप भौतिकता से मुक्त होकर नित्य सुख प्राप्त करें।

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