बंधन क्या होता हैं ? बंधन का अर्थ
बंधन अलग-अलग प्रकार का हो सकता है, लेकिन बंधन का अर्थ केवल एक ही है, जो मुक्ति से वंचित रखता है उसे बंधन ही कहां जाएंगा,अगर मुक्ति संभव है लेकिन मुक्ति को उपलब्ध नहीं हैं, तो वो बंधन ही हैं।
कुछ उदाहरणों से बंधन को समझने का प्रयत्न करते हैं।
- गाय मनुष्य की नियमों को नहीं जानती मुक्त होने पर वो जहां चारा दिखे वहां पहुंच जाती है, किसी का नुकसान न हो जिए इसी कारण ग्वाल गायों को रस्सी से बांधकर रखते हैं, गाय के लिए रस्सी से बंधा होना बंधन है,
- एक व्यापारी की भीड़-भाड़ वाली जगह दुकान है, रोजाना सैकड़ो लोग वहां से समान खरीदते हैं। एक दिन उसके दुकान अंदर आने वाले रास्ते पर काम शुरू हो जाता है जिसे रास्ते को तोड़ दिया जाता हैं, जब तक रास्ता फिर से बनकर तैयार नहीं होता उसका व्यापार भी बंद रहेगा, मुख्य रास्ते का उपयोग न होना उसके व्यापर के लिए बंधन हैं।
- बच्चे मैदान में जाकर खेलना चाहते हैं, लेकिन कड़ी धूप की वजह से परिवार के बड़े उन्हें बाहर जाने से रोकते है, बाहर कड़ी धूप का होना खेल के लिए बंधन हैं।
यह तो बंधन को समझने के कुछ उदाहरण हुए जो संसार में होने वाले बंधनों को समझाते हैं।
जीवात्मा का बंधन क्या है?
जीवात्मा (जीव का मन) भौतिक शरीर से परे शुद्ध आनंदस्वरूप आत्मा है, वह मुक्त हैं। परंतु भौतिक शरीर का अहंकार और भौतिक आसक्ति के कारण वह जीवात्मा हैं और भौतिक संसार के बंधन में होती हैं।
मन , बुद्धि के साथ मनुष्य को भौतिक संसार में रहने में सहायता करता हैं, मन इच्छा (आसक्ति ) करता है, बुद्धि आसक्ति के पूर्णता पर विचार करती है, और इंद्रियां मिलाकर उस इच्छा या आसक्ति के पूर्ति के लिए कार्य करते है।
वास्तित्वकता में मन, बुद्धि और इंद्रियों के जागरूक (गतिशील) होने का कारण आत्मा है आत्मा के बिना सब मृत है।
वेद और उपनिषद की माने तो यह चेतना शाश्वत हैं इसे किसी काल में भी अंत नही है चेतना न ही उत्पन्न हुई है और न ही समाप्त होती है।
जीवन में समस्त शरीर कार्य करता है इसके पीछे आत्मा ही हैं , लेकिन आत्मा इनसे भिन्न हैं। बल्कि समस्त सृष्टि कार्य करती है सृष्टि का अस्तित्व है इसका कारण भी आत्मा हैं। आत्मा अद्वैत ( केवल एक ) है,
स्वयं को नश्वर भौतिक शरीर को अहम (मैं) मानना बंधन ही हैं।
शरीर से भिन्न होते हुए भी यह शरीर को ही “मैं” (अहम) जनता हैं, अहंकार पूर्वक “मैं” कहना आत्मा ( परम वास्तविकता) का शरीर से बंधन ही है । आत्मा चराचर में व्याप्त हैं, समस्त शरीर समस्त जीवों का पालन करने वाला आत्मा है। लेकिन इस अनंत व्याप्त आत्मा (चेतना) के कारण जीवित होने भौतिक शरीर को अहम जानना बंधन हैं।
आसक्ति का बंधन
जीवात्मा अहम यानी स्थूल शरीर को संसार का भोक्ता मानती हैं । बल्कि उन्हें भोगने के लिएं कर्म भी करती हैं , यह कर्म सकाम कर्म कहलाता हैं। वास्तविकता में सकाम कर्म मुक्ति पर बंधन हैं।
सकाम कर्म करने वाली जीवात्मा बस एक शरीर मात्र ही होती हैं। और सदैव इंद्रिय के सुख और तृप्ति के लिए कार्यरत होती हैं।
जीवात्मा की जीवन मरण के चक्र के बंधन से मुक्ति क्या है?
जैसे हमने समझा जीवात्मा का भौतिक शरीर को अहम मानना बंधन हैं, क्योंकि वह भौतिक शरीर से परे (भिन्न) मुक्त आत्मा हैं।
इस बंधन से मुक्ति क्या है? मुक्ति को मोक्ष कहां गया है, मोक्ष शाश्वत आनंदमय अवस्था हैं, मोक्ष समस्त बंधनों से मुक्ति है, दिव्य सुख है मोक्ष प्राप्त कर जीवात्मा अहम का त्याग कर देती है और ब्रम्ह ( परमात्मा ) में वीलीन रहती हैं, मोक्ष धाम क्या है और प्राप्त होने के लिए उपाय को जानने स्पर्श कर अन्य आलेख को अवश्य पढ़िए ।
मोक्ष जीवन और मरण के परे की अवस्था हैं, मोक्ष सभी तरह के सुख दुख , आसक्ति, अहंकार और अहम के अनुभूति अस्तित्व के परे है , मोक्ष प्राप्त कर जीवात्मा सांसारिक बंधनों से मुक्ति प्राप्त करती हैं।
मोक्ष धाम को प्राप्त होने पर जीवात्मा को जीवात्मा नही कह सकते यह परम सत्य को प्राप्त हो जाता है, जीवन और मरण, सुख दुःख, अहंकार, आसक्ति, कर्मों के अभाव और भौतिक के पार हो जाने के कारण यह शुद्ध, अकर्ता, प्रकाश स्वरूप, सर्वव्यापी, अविनाशी आत्मा ( परमात्मा) हैं।
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