हम मानव और अन्य जीव जिस जगह जीवित रहते हैं इसे पृथ्वी लोग कहां गया हैं। इसी लोक में हम भौतिक शरीर प्राप्त करते हैं और एक समय पर इसे त्याग देते हैं।
मानव शरीर पांच तत्वों से बना हैं जिन्हें हम पंचतत्व कहते हैं, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश , लेकिन साधकों बहुत कम ऐसे लोग हैं जो परमतत्व का ज्ञान यानी आत्मज्ञान को प्राप्त करते हैं । परमतत्व को आत्मतत्व भी कहां हैं।
पंचतत्वों से बने शरीर का अंत होना अवश्यभावी हैं परंतु आत्मतत्व अविनाशी हैं, शरीर के नाश होने पर समाप्त नहीं होता।
‘आत्म’ का अर्थ ‘स्वयं’ होता हैं। आत्म यानी जिसे आप ‘स्वयं’ अनुभव करते हैं। यह केवल शरीर की बात नहीं हैं बल्कि परमात्मा, संसार के रहस्यों को भी आप ‘स्वयं’ में ही जान सकते हैं।
आत्मतत्व को स्वयं के अंदर ही खोजा जा सकता हैं, योगिजन इसे योग में सिद्धि प्राप्त कर खोजते हैं, जो आत्मतत्व खोजते हैं वह स्वयं में ही संतोष प्राप्त करते हैं, उनका दुनिया की माया से मोह समाप्त हो जाता हैं, यह मन की शांत अवस्था हैं।
माना जाता हैं जिसके जन्मों–जन्म के पुण्य उदय हो जाते हैं, उन्हें आत्म तत्व का ज्ञान प्राप्त होता हैं। आत्म तत्व में संतोष प्राप्त कर वे पुण्यवान योगी माया या भवसागर को पार कर जाते हैं और परमानंद मोक्षधाम को प्राप्त होते हैं वे योगी पुनः जन्म नहीं लेते। अन्यथा मृत्यु के पश्चात पुनः किसी योनि में जन्म लिया जाता हैं।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं जिस तरह से मनुष्य पुराने वस्त्र हटाकर नए धारण करता हैं, वैसे ही ‘आत्मा’ मृत्यु के पश्चात पुराना शरीर त्याग कर नया शरीर धारण करता हैं, परंतु जो योगी योग के द्वारा माया के बंधनों से मुक्त होता है वह मोक्ष को प्राप्त होता हैं।
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