‘अहम् ब्रह्मास्मि ‘ महावाक्य का तात्पर्य
अहम् ब्रह्मास्मि सनातन का महावाक्य है, यह अद्वैत वेदांत के चार महावाक्यों में से एक हैं, यह विश्व के सबसे प्राचीन ग्रंथों में से एक यजुर्वेद के बृहदारण्यक उपनिषद से लिया गया हैं।
अहम् ब्रह्मास्मि महावाक्य का हिंदी अर्थ होता है ‘मैं ब्रह्म हूं’ या मैं शाश्वत सत्य हूं। जब कोई योगी ध्यान साधना में उच्चतम सिद्धि प्राप्त करता है, वह इस महावाक्य का उद्घोष करता हैं और स्वयं को ब्रह्म कहता हैं। ब्रह्म निर्गुण, निर्लेप, निराकार, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ, शाश्वत, परमचैतन्य स्वरूप परमतत्व है।
परम चेतना जो समस्त जीवों में तथा चराचर में व्याप्त हैं । यह चेतना ब्रह्म का लक्षण हैं चेतना अनंत व्याप्त हैं। इस के कारण अनंत ब्रह्मांड और कण-कण में गतिशीलता हैं।
निराकार ब्रह्म समस्त जीवों को धारण पोषण करता हैं। जब योगी जीव की प्रकृति से परे जाता हैं वह स्वयं में व्याप्त परमतत्व के अस्तित्व को जनता है, जिसे निराकार ब्रह्म कहते हैं। और वह ब्रह्म स्वरूप में ही विलीन हो जाता हैं।
सनातन शास्त्रों में वर्णित ब्रह्म को अंतिम और परम सत्य कहा है यह कुछ वाक्य ब्रह्म की उपमा देते हैं।
- अहम् ब्रह्मास्मि : ‘मैं ब्रह्म हूं’ योगी जीव के प्रकृति ( मन , इंद्रियां, बुद्धि अहंकार, कर्तापन ) से परे होकर परमतत्व ब्रह्म स्वरूप को प्राप्त होता हैं।
- तत्त्वमसि : ‘वह ब्रह्म तुम हो’ परमतत्व चराचर में व्याप्त हैं, और चराचर को धारण करता हैं, यह वाक्य अज्ञानता के परे ज्ञान की सूचना देता हैं।
- अयम् आत्मा ब्रह्म : ‘यह आत्मा ब्रह्म है’ चैतन्य स्वरूप आत्मा के सदा एक सा रहने वाला है। भौतिक जगत से परे परमतत्व हैं इस ही ब्रह्म भी कहा जाता हैं।
- प्रज्ञानं ब्रह्म : ‘वह प्रज्ञान ही ब्रह्म है’ ब्रह्म आत्मज्ञान ( आत्मिक ज्ञान ) के ज्ञान से अभिन्न है, आत्मज्ञान ही ब्रह्म हैं।
- ब्राह्मण सत्यम, जगत मिथ्या : ‘ब्रह्म सत्य है , जगत भ्रम हैं’ जीव बनाकर जगत से आसक्ति अज्ञान है, जगत नश्वर हैं, ब्रह्म शाश्वत सत्य हैं।
‘अहम् ब्रह्मास्मि‘ महावाक्य की प्राप्ति
केवल ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ का उद्घोष कर स्वयं को ब्रह्म कहना अज्ञान हैं। वास्तविकता में इसे जानने के लिए जीव की प्रकृति से परे होकर परम सत्य को प्राप्त होने की आवश्कता है।
ध्यान में उच्च सिद्धि जीव के अज्ञान के अंधकार को नष्ट कर ब्रह्म स्वरूप में विलीन कर देती हैं, अर्थात वह ब्रह्म बन जाता हैं। जीव की प्रकृति से परे जाकर स्वयं को चैतन्य स्वरूप परमतत्व जानना ही वास्तविकता में ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ महावाक्य समझना हैं।
ध्यान : ब्रह्म निर्गुण हैं नेति नेति ( वैसा भी नहीं ) कहकर इसके का खण्डन होता हैं ब्रह्म को प्राप्त होने के लिए सभी गुणों का त्याग करना आवश्यक ब्रह्म को प्राप्त होने के लिए ध्यान श्रेष्ठ साधन हैं। इससे मन को नियंत्रित और एकाग्र किया जाता हैं। और ब्रह्म स्वरूप की और बढ़ा जाता हैं।
भक्ति : भक्ति भाव से मन के अहंकार को त्यागना सर्वश्रेष्ठ साधन हैं। किंतु में भक्ति में प्रेम होना चाहिए प्रेम ही पूर्ण समर्पण का पथ हैं, तथा समर्पण का पथ ही ब्रह्म स्वरूप का का पथ है, पूर्ण समर्पण कर ब्रह्म को प्राप्त हुआ जाता हैं ।
निष्काम कर्म: निष्काम कर्म ( फल की इच्छा त्याग के केवल कर्म करना) ब्रह्म स्वरूप को प्राप्त होने का पथ हैं, समस्त कर्मों के फलों (परिणाम) की आसक्ति सत्य से रखकर मिथ्या जगत की और अज्ञान के अंधकार में ले जाती हैं । इस सकाम कर्म ( फल की इच्छा रखकर किए जाने वाले कर्म ) कहा जाता हैं।
निष्काम कर्म में मन को नियंत्रित रखने का अभ्यास होता हैं। निष्काम भावना से या भगवान के लिए कर्म करना इच्छारहित होकर समस्त कर्म करते रहना गहरे ध्यान की ओर ले जाते है और ध्यान ब्रह्म स्वरूप की और ले जाता है। किंतु ब्रह्म स्वरूप के प्राप्त होने के लिए कर्म के फल का त्याग करना साकाम कर्म ही कहा जाता हैं इसी कारण ज्यादातर साधक ब्रह्म स्वरूप की प्राप्त नहीं हो पाते हैं। ब्रह्म स्वरूप को प्राप्त होने की इच्छा को भी त्याग करना आवश्यक हैं।
ॐ तत् सत्
निष्कर्ष ;
‘अहम् ब्रह्मास्मि’ महावाक्य का उद्घोष करने वाला योगी स्वयं को जीव से परे ब्रह्म जनता हैं इस महा वाक्य का अर्थ है ” मैं ब्रह्म हूं ” । ब्रह्म चराचर का कारण हैं। और ध्यान का अंतिम लक्ष हैं।
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