मन और आत्मा में क्या अंतर है?


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आत्मा और मन मिलकर जीवात्मा कहीं जाति हैं परंतु आत्मा जीवात्मा से भिन्न हैं, जीवात्मा ही मन के ना होने से यह पवित्र आत्मा होती हैं।

आत्मा शुद्ध होती हैं। मन के कारण अहंकार होता और विषयों की आसक्ति होती हैं आत्मा इन के कारण जीवात्मा कहीं जाति हैं। जीवात्मा और जीव के शरीर से भिन्न है परंतु ये जीवात्मा जीवों से भिन्न नहीं हैं जीवों का अहंकार और आसक्ति ही जीवात्मा हैं।  

मन को विषयों की आसक्ति से हटाकर तथा अहम के अहंकार का त्याग कर शुद्ध प्रकाश स्वरूप आत्मा के दर्शन होते है इसे संबोधन के लिए आत्मसाक्षात्कार , आत्मज्ञान आदि शब्द है।


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मन और आत्मा में क्या अंतर है

आत्मा और मन में अंतर

कुछ लक्षणों से आत्मा और मन के अंतर को समझते हैं।

आत्मा 

मन 

सत्य का प्रकाश हैं 

अहम ( मैं ) का अहंकार में होता हैं।

सांसारिक विषयों से मुक्ति हैं।

सांसारिक विषयों के प्रति आसक्त हो सकता हैं।

अनादि, अजन्मा, नित्य अविनाशी, शाश्वत अव्यव है।

भौतिक शरीर और इंद्रियों के कारण बंधन में है।

कर्म और विचार से परे (मुक्त) हैं, अकर्ता हैं।

विचार और कर्म का बंधन हैं।

ज्ञान स्वरूप हैं। 

अज्ञान के अंधकार में हैं।

आनंद स्वरूप हैं।

निरंतर सुख और दुख भोगता है।

एक सा रहने वाला है, अद्वैत हैं, सच्चिदानंद ( सत्, चित्, आनंद) स्वरूप हैं।

निरंतर इच्छाओ के कारण बदलता हैं , अशांत होता है।

आत्मा सत् (सत्य) है

मन असत् हैं।

आत्मा इन्द्रियों, और शरीर से परे हैं।

मन इन्द्रियों और शरीर के कारण हैं।

ब्रम्ह स्वरूप हैं।

जीव स्वरूप हैं।

निराकार हैं।

जीव के शरीर का आकार हैं।

चराचर में व्याप्त हैं।

अहंकार के कारण भ्रमित (अज्ञानी) हैं।

अनंत है।

पर्याप्त में अस्तित्व हैं।

आत्मज्ञान से मन और आत्मा अंतर कैसे जानें समझा जाता हैं।

आत्मज्ञान रूपी प्रकाश से मन की अज्ञानता को नष्ट किया जा सकता हैं।

मन निरंतर अज्ञान में होता हैं। आत्मा ज्ञान स्वरूप है आत्मज्ञान प्राप्त करके मन की अज्ञानता को समझना सहेज हैं।

मन के कारण जीवात्मा विषयों के प्रति आसक्त होती हैं, तथा मन के कारण ही अहंकार उत्त्पन्न होता हैं। आत्मज्ञान से मन के ये लक्षण स्पष्ट समझ आते हैं, किंतु आत्मज्ञान से भिन्न बुद्धि के द्वारा इसकी कल्पना करना संभव हैं।

शुद्ध आत्मा सर्वव्यापी, अविनाशी, शाश्वत हैं । यह विचार, कर्म से मुक्त हैं, अनात्मज्ञान इंद्रियों से प्राप्त किया जाता है, लेकिन आत्मज्ञान इन्द्रियों से प्राप्त नहीं किया जा सकता , आत्मज्ञान स्वयं को इंद्रियों, मन और बुद्धि से भिन्न जानकार प्राप्त होता हैं।

मन भौतिक संसार में शरीर को अहम मानकर संपूर्ण संसार का भोक्ता बनता हैं और आत्मरूपी प्रकाश को अज्ञानता से ढक देता है।

मन को केंद्रित करना कठिन है क्योंकि मन चंचल होता है । ध्यान , भक्ति, मंत्रजाप साधना से मन को केंद्रित करने का अभ्यास होता हैं।

मन केंद्रित होते है मन आत्मा में विलीन हो जाता है और आत्मज्ञान रूपी प्रकाश इस मन के अज्ञान के अंधकार को नष्ट करता हैं।

अक्सर पूछे गए सवालों के उत्तर

मन स्वयं को इंद्रियों और बुद्धि के कारण जनता हैं और मन इन्द्रियों के द्वारा विचार और कर्म करता हैं। परंतु आत्मा मन के साथ अहंकार सांसारिक आसक्ति और इन्द्रियों से भिन्न हैं, आत्मा को कई कर्म नहीं बांधता हैं, आत्मा अकर्ता हैं।

बुद्धि मन के अधीन होती हैं, और मन के अनुसार ही कार्य करती हैं, इंद्रियों तथा बुद्धि के कारण मन में सांसारिक विषयों का मोह उत्पन्न होता हैं।

मन को नियंत्रित करने वाले योगी का मन योगीका एक मित्र होता हैं, सांसारिक विषयों की आसक्ति को जानकर मन को नियंत्रित रखा जाता हैं, और ध्यान में सिद्धि प्राप्त की जाति हैं।

सांसारिक विषयों की आसक्ति होने का कारण मन हैं, जो आगे चलकर मानसिक तनाव उत्पन्न करती हैं, मन इन्द्रियों के तृप्ति का सुख भोगने के लिए आसक्ति रखता हैं। 


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