आध्यात्म में आत्मा और जीवात्मा की परिभाषा
आध्यात्म में जब हम आत्मा, जीवात्मा और परमात्मा की बात करते हैं, तो ये कोई बाहरी चीज़ें नहीं हैं, बल्कि हमारे अपने ही स्वभाव के अलग-अलग आयाम हैं।
आत्मा का अर्थ है – “अहम्” का सत्य और ज्ञान।
जीवात्मा का अर्थ है – “अहम्” का वह स्वरूप जो अपने असली अस्तित्व को भुला बैठा है।
इसलिए आत्मा और जीवात्मा को स्वयं से अलग कोई बाहरी वस्तु मानकर देखने की भूल नहीं करनी चाहिए। ये कहीं बाहर नहीं, बल्कि हमारी ही चेतना है — आंखों के आगे नहीं, बल्कि आंखों के पीछे।
कई बार जो लोग स्वयं को ज्ञानी या तर्कशील मानते हैं, वे भी इस विषय में भ्रमित हो जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वे आध्यात्म को भी उसी दृष्टि से समझने का प्रयास करते हैं, जैसे वे भौतिक संसार को देखते हैं।
जब हम किसी चीज़ को जानने का प्रयास करते हैं, तो मन सबसे पहले उसकी कल्पना करता है। हम उसे किसी दृश्य के रूप में देखने लगते हैं ताकि उसे समझाया जा सके। लेकिन आध्यात्म में ऐसा करना संभव नहीं है।
आध्यात्म का सत्य इंद्रियों, कल्पनाओं और शब्दों की सीमाओं के परे है। इसे किसी रूप-आकार में ढालना या बाहरी दुनिया की तरह परिभाषित करना, आध्यात्म नहीं — केवल भ्रम और पाखंड है।
यही कारण है कि आध्यात्म को जानने के लिए हमें अपनी दृष्टि को बाहर से हटाकर भीतर की ओर मोड़ना पड़ता है, ताकि हम अपने “अहम्” को पहचान सकें।
मनुष्य का स्वभाव है कि जो उसकी आंखों के सामने है, उसे ही सत्य मान लेता है। जबकि वास्तविक सत्य को जानने के लिए साधना, ध्यान और आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता होती है।
जो जीव है, उसका मूल स्वभाव ही अज्ञान है। उसकी चेतना का आधार ही असत्य है। यही कारण है कि सत्य को स्वीकारने के बजाय वह अक्सर भ्रम की ओर बढ़ता है।
सत्य सबसे पहले हमारे भीतर के अहंकार, इच्छाओं और वासनाओं पर प्रहार करता है। यही कारण है कि सत्य तक पहुंचने का मार्ग कठिन प्रतीत होता है।
उदाहरण के लिए, एक झूठा व्यक्ति सच बोलने वाले को भ्रमित करने की कोशिश करता है। वह अपने झूठ को बचाने के लिए कहानियां गढ़ता है। लेकिन वह यह नहीं जानता कि सत्य के अलावा कोई दूसरी सत्ता है ही नहीं।
समाज में जीवात्मा और आत्मा शब्द की असत्य परिभाषा
इसी तरह, कई लोग आत्मा, जीवात्मा या परमात्मा को किसी दृश्य रूप में देखने का प्रयास करते हैं। कोई उन्हें प्रकाश, ज्योति, ऊर्जा, या सूक्ष्म कण जैसा बताते हैं। कोई कहता है कि आत्मा अंगूठे जितनी होती है, बैंगनी रंग की होती है, या परमात्मा इस संसार के रूप में प्रकट होता है।
लेकिन ये सभी भ्रांतियां हैं। सत्य यह है कि आत्मा, जीवात्मा और परमात्मा केवल हमारे भीतर ही मिलते हैं।
जिसके नाम में ही ‘आत्म’ शब्द आता है, उसे बाहर खोजने का प्रयास करना व्यर्थ है।
यह वैसा ही है जैसे कोई घोर अंधकार में उस चीज़ को खोजने निकले, जो वहां है ही नहीं।
आत्मा, जीवात्मा और परमात्मा ये शब्द केवल आध्यात्म में ही मिलते हैं, लेकिन कई लोग इन्हें विज्ञान से जोड़ने की कोशिश करते हैं। वे स्वयं को एक तीसरे व्यक्ति की तरह खड़ा कर लेते हैं, जो कि न आध्यात्मिक होता है न वैज्ञानिक — बल्कि केवल भ्रमित होता है।
आजकल कुछ लोग विज्ञान का सहारा लेकर आध्यात्म को झूठा साबित करने का प्रयास करते हैं। वे जानते हैं कि लोगों का विज्ञान पर गहरा विश्वास है, और इसी विश्वास का वे गलत फायदा उठाते हैं। वे विज्ञान के नाम पर आध्यात्मिक सिद्धांतों का उपहास उड़ाते हैं या उन्हें अविश्वसनीय साबित करने की कोशिश करते हैं।
लेकिन वास्तव में विज्ञान और आध्यात्म एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं, बस उनके मार्ग भिन्न हैं।
विज्ञान का आधार है — तर्क, प्रमाण और परीक्षण।
आध्यात्म का आधार है — आत्मिक अनुभव और आत्मसाक्षात्कार।
विज्ञान वहां से शुरू होता है जहां इंसान खड़ा है और वहां तक जाता है जहां तक उसकी इंद्रियां और बुद्धि उसे पहुंचा सकती हैं।
आध्यात्म वहां से शुरू होता है जहां मनुष्य स्वयं को जानने के लिए भीतर की ओर मुड़ता है। यह जानने की यात्रा नहीं है, बल्कि “जानने वाले को जानने” की यात्रा है।
आत्मा और जीवात्मा — जानने वाला ही है
सीमा से परे जाकर आत्मा और जीवात्मा का ज्ञान
आत्मा और जीवात्मा को न देखा जा सकता है, न अनुभव किया जा सकता है, क्योंकि ये स्वयं अनुभव करने वाला ही है।
हम केवल वही देख सकते हैं जो हमारी आंखों के सामने है — दृश्य है।
हम केवल वही सुन सकते हैं, छू सकते हैं, सूंघ सकते हैं, स्वाद ले सकते हैं जो हमारी इंद्रियों का विषय है।
और हम केवल वही अनुभव कर सकते हैं जो हमारे मन का विषय है — जैसे सुख-दुख, प्रेम-क्रोध, भय-आशा आदि।
लेकिन आत्मा और जीवात्मा इन सबसे परे हैं। वे जानने या अनुभव करने का विषय नहीं हैं — वे स्वयं जानने वाला हैं।
बुद्धि का मार्गदर्शन
स्वरूप को बुद्धि के द्वारा भी नहीं समझा जा सकता, लेकिन बुद्धि यह जानने में सहायक है कि “क्या स्वरूप नहीं है”।
इसके लिए बुद्धि को भीतर की ओर मोड़ना पड़ता है। लेकिन आमतौर पर बुद्धि मन के साथ मिलकर बाहरी विषयों के चिंतन में उलझ जाती है — उन्हीं विषयों में जो स्वरूप नहीं हैं।
जब बुद्धि मन को समझा देती है कि —
“अब तुम्हें बाहरी विषयों में भटकना छोड़ देना है… उन क्षणिक सुखों और अस्थायी आकर्षणों के पीछे दौड़ने का कोई अर्थ नहीं है…” — तब मन ठहरने लगता है।
मन का भटकाव, जो उसे इधर-उधर खींच रहा था, धीरे-धीरे शांत होने लगता है। और जब बुद्धि उसे यह भी समझा देती है कि “सत्य क्या है?”, तब मन उस मार्ग पर बढ़ने लगता है, जिसका अंतिम लक्ष्य उस स्वरूप को जानना है — जो मन और बुद्धि के पीछे है।
यानी जानना कि “मैं वास्तव में कौन हूं?”
जीवात्मा और आत्मा का अंतर
- जीवात्मा और आत्मा एक-दूसरे के विपरीत हैं।
- आत्मा निराकार, निर्गुण और अनंत है।
- जीवात्मा का आकार होता है, गुण होते हैं, और वह सीमित होती है।
- आत्मा सूर्य की तरह तेजस्वी है — वह स्वयं ज्ञान है।
- जीवात्मा अज्ञान के अंधकार में भटकती रहती है।
- जीवात्मा को संसार में जन्म लेना पड़ता है — वह काल और प्रकृति के अधीन होती है।
- आत्मा कालातीत है — न उसका जन्म होता है, न उसका अंत।
- जीवात्मा इस पृथ्वी पर या अन्य ग्रहों पर पाई जाती है, जहां जीवन है।
- आत्मा का स्थान इस संसार में नहीं, वह संसार से परे है।
- जीवात्मा सीमित है, परतंत्र है, और अज्ञान में उलझी हुई है।
- आत्मा असीम है, स्वतंत्र है, और सदा सत्य स्वरूप में स्थित है।
- आत्मा — स्वरूप का ज्ञान है।
- जीवात्मा — स्वरूप का अज्ञान है।
जीवात्मा वही है जो स्वरूप को पहचान नहीं पाती।
आत्मा वही है जो जानती है कि “स्वरूप क्या है और क्या स्वरूप नहीं है।”
यही वह सत्य है, जो जानने के बाद सारा भ्रम मिट जाता है — और वही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है।