जिनके पुण्य उदय हो जाते है उन्हे परमात्मा के असीम स्वरूप का दर्शन होता है | लेकिन परमात्मा के ये स्वरूप है कैसा और इसके कैसे जाना जाता है इस लेख में जानिए |
परमात्मा वह सर्वोच्च आत्मा है जो इस संसार को चेतना से प्रकाशित करता है | परमात्मा का साक्षात्कार दिव्य अनुभव है यह यह अंतिम ज्ञान है; दिव्य ज्ञान है | इसे जानने के बाद कुछ और जानना बाकी नहीं रहता |
परमात्मा का दर्शन या साक्षात्कार
परमात्मा वह सर्वोच्च सत्ता है | वह इस दुनिया का आधार है | जिस तरह से दर्पण में परछाई स्थित होती है संपूर्ण संसार उसमे स्थित है ऐसा कुछ भी नहीं जो उससे अलग है जीवन, विकास, जरा और मृत्यु भी परमात्मा के असीम स्वरूप से परे नहीं इन सब के अस्तित्व का परम कारण परमात्मा है |
अगर आप अब भी ऐसा सोच रहें है की आप ‘स्वयं’ परमात्मा से अलग कुछ है तो ये अज्ञान है, वह परमात्मा सभी जीवों में विराजमान है, सभी को धारण पोषण करता है | इसके बाद भी उसका स्वरूप सबसे परे है वह पूर्ण ज्ञान है |
जब किसी योगी को अपने स्वयं के अस्तित्व का ही पूर्ण ज्ञान हो जाया है तो उसे परमात्मा का साक्षात्कार यानी दर्शन होता है | उसे इस जगत का भी ज्ञान हो जाता है वह संपूर्ण जगत का साक्षी परमात्मा के स्वरूप में विलीन हो जाता है |
परमात्मा जगत से परे है परमात्मा के माया के कारण यह जगत में जागरूकता है | माया के तीन गुण सत, रज और तम मिलकर इस संसार को चलाते है यह माया की रचना है | ये सच्चिदानंद स्वरुप से ही व्यक्त होते है |
जब योगी दिव्यज्ञान स्वरूप परमात्मा का दर्शन करता है वह स्वयं और संसार में इस अनंत व्याप्त परमात्मा को ही जानना है | वह सभी का आधार होकर भी सबसे परम आत्मा है; परमात्मा से बड़ा आचार्य इस जगत में कुछ नहीं |
वह स्वरूप शब्दों से परे है उसे शब्दों के द्वारा व्यक्त करना संभव नहीं हो सकता | परंतु हम शब्दों के द्वारा अज्ञान को दूर अवश्य कर सकते है |
जीव का अज्ञान ही माया है
जब हम कहते है परमात्मा एक है उसे अलग दूसरा कोई अस्तित्व ही नहीं | तब मन में यह सवाल उठता है की संसार में कितनी अलग-अलग गुण है | हो यह सवाल करता है वह भी तो एक अलग पहचान लगती है |
सबकों अलग जानने का कारण ही अज्ञान है, इसका कारण माया है | माया परमात्मा की ही शक्ति है | माया यानी वह को नहीं है यानी “जैसा दिखता है वैसा नहीं है”
जब ज्ञान मे ही अज्ञान किसी को हो जाता है तो वह माया जान पड़ती है | जैसे गीली मिट्टी से अलग बर्तन और वस्तुएं बन सकते है | लेकिन सब मिट्टी ही है इसलिए इन सबमें केवल नाम, रूप का ही अंतर है | लेकिन कोई अगर मिट्टी से अनजान है तो वह इस सबने भेद देखने लगेगा | लेकिन अगर कोई मिट्टी से परिचित है तो वह सभी बर्तन और वस्तुओं को समान और एक ही तत्व जानेगा |
उसी तरह इस संसार में बहुत भेद लगता है लेकिन ये भेद केवल अज्ञान के कारण जान पड़ता है | जब परमात्मा का ज्ञान हो जाता है तो इस भेद का कोई कारण नहीं होता | पूर्ण ज्ञान ही परमात्मा है जब ज्ञान पूर्ण नहीं होता तब अज्ञान या प्रधान होता है आधे ज्ञान को भी हम अज्ञान ही कहेंगे क्योंकि ज्ञान तो उसे ही कहना चाहिए जो पूर्ण होता है |
परमात्मा से अलग कुछ नहीं न संसार और नहीं ‘मैं’ यानी संसार का दृष्टा | इसलिए परमात्मा का दर्शन भी ‘आत्मज्ञान’ यानी ‘स्वयं के ज्ञान’ से ही हो सकता है |
जब योगी सभी अज्ञान से परे अपने सच्चे स्वरूप को प्राप्त होता है वह अपनी आत्मा में ही परमात्मा का साक्षात्कार करता है | वह स्वरूप ही आत्मा का सच्चा स्वरूप है; जन्म मरण वालें चक्र से मुक्ति है, वह परम पद यानी मोक्ष है |
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