हमारे धार्मिक ग्रंथों में ज्ञान की विस्तारित बातें लिखी हुई हैं। इनसे मनुष्य जीव आत्म के कल्याण के पथ को चुनने में जागरूक होता हैं । मोक्ष प्राप्त करना जीवात्मा का सर्वोत्तम कल्याण कहां गया हैं। लेकिन मोक्ष को प्राप्त होने से कई मनुष्य जीव असफल रहते हैं। इस असफलता का कारण माया हैं।
धोका, छल, वंचना ये माया शब्द के समान अर्थ के शब्द हैं। विद्वानों ने दो अक्षरों से माया शब्द बनाया हैं “मा” यानी “नहीं” और “या” यानी “जो हैं”। अर्थात् जो नहीं हैं लेकिन होने का भ्रम पैदा हो रहा हैं, वह माया हैं।
साधनों इस लेख में माया क्या होती हैं सरल भाषा में कुछ उदाहरण के साथ समझते हैं। इसे पूर्ण पढ़ने पर अवश्य ही आप माया नाम के इस छल को समझ पायेंगे और इसके प्रभावों से भी मुक्त रहने का प्रयत्न करेंगे। चलिए जानते हैं माया क्या हैं?
माया क्या हैं?
माया को एक सरल वाक्य में समझने का प्रयास करें तो यह कहेंगे की व्यक्ति जिन विषयों का स्वयं को भोक्ता मान और बन सकता हैं वह माया हैं। अगर कोई व्यक्ति इंद्रियों की तृप्ति के लिएं, मन के आंनद के लिए , स्वयं के स्वार्थ के लिएं और अहंकार को बनाएं और बढ़ाने के लिएं जिन विषयों और कर्मों को अपनाता हैं वो सब माया हैं।
हम ऐसा नहीं कह सकते की जगत की कुछ वस्तुएं और विषय माया हैं। यह गलत हैं । वस्तु और विषयों में कोई दोष नहीं हैं । दोष जीव के मन में होता हैं। इसीलिए सांसारिक विषय और वस्तुएं उनके लिएं माया बन जाती हैं । अगर मन के इस दोष को नष्ट कर दे तो वस्तुएं जैसी की वैसी ही हैं। इनमें कोई आसक्ति नहीं और कोई माया भी नहीं।
कुछ लोग अकसर धन और संपत्ति को माया कह देते हैं। धन संपत्ति उन लोगों के लिएं माया हैं जो स्वयं के सुख प्राप्त करने के लिए धन और संपत्ति के पीछे भागते हैं । जो संन्यासी किसी वस्तु और विषय को प्राप्त किए बिना संतुष्ट रहता हैं और अगर प्राप्त हैं तो इनसे ईर्षा भी नहीं करता। या केवल दूसरों के सुखों के लिएं धन कमाता हैं । जिससे वह स्वयं का कोई रिश्ता नाता नहीं रखता उसके लिए धन, संपत्ति आदि माया नहीं हैं।
जगत को माया नहीं कह सकतें और माया जगत के कारण भी निर्माण नहीं होती और माया जगत में भी कहीं नहीं हैं । माया जीवों के मन में वास करती हैं और माया का निर्माण “मैं” यानी जीव का अहंकार और उनकी दृष्टि का द्वैतभाव करता हैं।
माया सिर्फ धन, संपत्ति भौतिक सुख तक ही सीमित नहीं हैं। बल्कि माया ही वह शक्ति है जो आत्मा को जीव बनातीं हैं। और आत्मा को इसी जीव बंधन में जकड़ कर रखती हैं । यह सिर्फ मनुष्य तक ही सीमित नहीं बल्कि अन्य जीव जंतु भी माया के अधीन होते हैं।
माया जीव के जन्म के बाद ही उसके मन में बस जाती हैं। और मृत्यु तक भी उससे अलग नहीं होती हैं।
अगर किसी पर माया का अधिकार नहीं हैं तो इसमें कोई संदेह नहीं वह जीव ही नहीं हैं वह स्वयं ब्रह्म हैं। माया के बंधनों को ठुकरा कर उसने मोक्ष प्राप्त कर लिया हैं।
जीव अज्ञान के कारण माया में सुख देखता हैं लेकिन माया असल में दुख का सागर हैं। माया को स्वयं पर हावी होने से न रोके तो यह माया व्यक्ति को घोर दुख दे सकतीं हैं। माया के बाद मोह उत्पन्न होता हैं और मोह के बाद कामना और कामना के बाद काम और काम के बाद क्रोध और इस क्रोध के बाद सिर्फ हानि होती हैं ।
माया को झूट क्यों कहा गया हैं?
माया झूट इसी लिए हैं क्योंकि यह जीवों को उनके सत्य स्वरूप यानी ब्रह्म स्वरूप से वंचित रखती हैं। इस संपूर्ण जगत ब्रह्म की अभिव्यक्ति हैं, और ब्रह्म वही हैं जो इस जगत में जीव बनकर फसे पड़े हैं। उन जीवों को ये नहीं पता की जिसे वह “मैं” शरीर और अन्य को बाहरी समझ रहें हैं। असल में सब कुछ ब्रह्म हैं। वे भी ब्रह्म हैं और संसार भी ब्रह्म हैं। यही अद्वैत सिद्धात हैं ।
जब जीव स्वयं को शरीर, मन बुद्धि और इंद्रियां जानते हैं। उन्हे जगत में द्वैत भाव दिखाई देता हैं यही जीवात्मा का बंधन भी हैं । जब इन से मुक्त हो जाते हैं वे स्वयं को ब्रह्म जानते हैं।
आत्मज्ञान से इस सृष्टि के भ्रम रूपी द्वैतभाव नष्ट हो जाता हैं । आत्मज्ञान इंद्रियों, मन या बुद्धि से भी नहीं प्राप्त होता इसे प्राप्त करना यानी इंद्रियों के बोध से मुक्त हो कर आत्मा के स्वरूप को जानना।
आत्मज्ञान से हीं विद्वान यह ज्ञान प्राप्त करते हैं । जिससे वे अपनें सत्य को प्राप्त करते हैं। और इंद्रियों और मन बनाए अज्ञान या झूट को दूर करते हैं।
माया को समझने के लिएं उदाहरण
1. पानी के अंदर जब हवा के बुलबुले बन जाता हैं वह पानी से उपर सतह की और आता हैं। बुलबुले और पानी दोनों एक ही हैं, परंतु अलग अलग व्यवहार करते हैं।
बिलकुल इसी तरह जब जीव में शरीर का अहंकार आ जाता हैं जीवात्मा स्वयं को शरीर जानती हैं और संसार को उससे भिन्न समझती हैं। इसी द्वैत भाव से कारण माया जीवात्मा को बंधन में जकड़ लेती हैं। जिस तरह पानी से बना बुलबुला और पानी दोनों एक ही तत्व हैं । उसी तरह ब्रह्म की अभिव्यक्ति सृष्टि और समस्त जीव अद्वैत हैं।बुलबुले में भरी हवा को हम अहंकार कह सकते हैं। और इसी अहंकार के बाद द्वैत भाव और फिर माया हैं।
2. रेशम का कीड़ा अपने ऊपर एक आवरण बनाता है। वह कीड़ा उसी आवरण में फस जाता हैं। समय के साथ किसे में बालादाव आते हैं। और वह कीड़ा उस आवरण से मुक्त हो जाता हैं।
इस उदाहरण में हम कीड़े को जीवों के जगह रखेंगे, आवरण को सृष्टि की तरह, बदलाव को आत्मज्ञान की तरह और मुक्ति को मोक्ष की तरह रखेंगे।
जीवात्मा स्वयं को शरीर जानकर सृष्टि में फस जाती हैं। फसने का कारण हैं इन्द्रियों का अधूरा ज्ञान जो माया के पार नहीं जा सकता । आत्मज्ञान माया को चीर कर इसके पार चला जाता हैं और योगी अपने अहंकार का त्याग कर परम सत्य क्या हैं ? इसे जान जाता हैं।
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निष्कर्ष;
माया का कारण “मैं शरीर” ( जीवों के शरीर का अहंकार ) हैं। इंद्रियों और बुद्धि के अधूरे ज्ञान के कारण जीव माया को एक भ्रम नहीं जान पाते । इंद्रियों और बुद्धि के साथ संपूर्ण शरीर माया की देन हैं। वह माया के पार नहीं जा सकता । किंतु आत्म माया के पार चला जाता हैं । और इस झूट को पकड़ लेता हैं।