आत्मा परम आनंद स्वरूप है; वह शाश्वत आनंद है; वह अजन्मा और अविनाशी और सदैव एक सा रहने वाला है | परंतु इसके बाद भी कोई मनुष्य कहता है की वह दुखी है |
अगर आपको भी ऐसा लगता है की दुख जीवन की एक सच्चाई है मनुष्य या अन्य कोई जीव उसे चाहें न चाहें दुख का सामना करना ही पड़ता है तो आप अज्ञानी हो सकते है |
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मैं कहता हूं की दुख भ्रम जैसा है जो न होते हुए भी प्रतीत होता है | बिलकुल उसी तरह जैसे एक जादूगर अपनी कला से कई लोगों को भ्रमित कर देता है | वह उन्हें भ्रम में फसता है जो वास्तविकता नहीं है | जिससे वह अचंभें में पड़ जाते है। लेकिन जैसे ही वह जादूगर अपना राज उजागर करता है तो वे यह समझ जाता है की जादूगर ने जो उन्हें दिखाया वह तो एक झूठी बात थी सच्चाई तो कुछ और ही थी | उनका अचंभा दूर होता है और वे बाद में मुस्कुराते हुएं सिर पर हात रखते है |
कोई भी दुख हो या दुख का थोड़ा आभाव यानी सुख, ये भी कुछ उसी जादू की तरह ही होता है | साधकों! वास्तविकता तो कुछ और ही है और वही सत्य है | इसी वास्तविकता को उपनिषद और वेदांत ब्रह्म कहते है | अष्टावक्र इसे आत्मा कहते है | लाओ त्सू इसे ताओ कहते है | और तथागत बुद्ध इसे निर्वाण कहते है |
उस सत्य के नाम कई सारे है परंतु निसंदेह वह सभी नाम और शब्दों से परे है | इसी लिए उसका कोई नाम नहीं है और उसे शब्दों से जाना नहीं जा सकता |
आत्मज्ञान उसी सत्य की अनुभूति है | और समाधि उसी सत्य की प्राप्ति है | साधकों इस लेख में आप जानने वाले है आत्मज्ञान और समाधि क्या होती है | और आत्मज्ञान से समाधि कैसे इसका भी निरूपण करगें |
आत्मज्ञान
साधकों ‘आत्म’ के कुछ समानार्थी शब्द है स्वयं और स्व | ‘ज्ञान’ वह समझ है जो अंधेरे जैसे अज्ञान को प्रकाश जैस ज्ञान से दूर करती है |
व्यक्ति को अंधेरे में किसी वस्तु समझ नहीं हो सकती परंतु प्रकाश में हो सकती है | उसी तरह ज्ञान के सिवा केवल अज्ञान ही प्रधान होता है | जिसमे उसे वास्तविकता को समझ नहीं होती |
आत्मज्ञान यानी वह ज्ञान जो स्वयं (मैं) का बोध करवाता हैं | उस साधक को स्वयं की समझ हो जाती है | उसका कोई अज्ञान बाकी नहीं रहता |
‘आत्म’ जिसे हम स्वयं या ‘मैं’ समझते है उसी का ज्ञान आत्मज्ञान कहलाता है | आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए साधक को स्वयं के भीतर ही झांकने की जरूरत होती है | आत्म का ज्ञान किसी बाहरी विषय से प्राप्त नहीं हो सकता | इसी लिए इसे आत्म साधना से प्राप्त किया जाना संभव है जिसे ध्यान और योगाभ्यास से साधा जाता है |
कई साधकों को आत्मज्ञान प्राप्त करना कठिन जान पड़ता है इसका कारण अज्ञान ही है | आत्मज्ञान साधना उनके लिए कठिन इसीलिए है क्योंकि ‘आत्म’ (मैं) एक हाड़ मांस का शरीर नहीं है | जिस शरीर को अज्ञानी लोग ‘मैं’ कहते है |
तो आत्म क्या है? साधकों आत्म निर्गुण है निराकार है | वह शरीर या मन नहीं है वह केवल चैतन्य है | परम शुद्ध और पवित्र है | मन और शरीर तो प्रकृति है वही जो बाहर है उसी में भौतिक शरीर और मन भी शामिल है | आत्मा प्रकृति नहीं है परंतु आत्मा ही प्रकृति का कारण है | जिस तरह आयने में परछाई पड़ती है | परछाई का कारण आयना होता है | उसी तरह आत्मा में ही प्रकृति जानी जाती है |
जब कोई साधक आत्मज्ञान साक्षात्कार करता है | वह शरीर और मन से परे हो जाता है | यह बोध केवल आत्मज्ञान से ही संभव है | आत्मज्ञान साक्षात्कार यानी “मैं शरीर नहीं बल्कि शरीर मेरा है मैं शरीर, मन, विचार के साथ इस संसार से भी पुथक हूं मैं ही दृष्टा हुं” इस सच्चाई का अनुभव करना ही शुद्ध आत्मा का अनुभव हैं |
अगर किसी व्यक्ति पर भारी दुख, चिंता होती है तो पहले ये जानने की आवश्कता है की इसका कारण क्या है मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूं की इसका कारण अज्ञान ही होता है |
आत्म को शरीर समझना ही अज्ञान हैं और इसी से दुख जान पड़ते है | वासनाएं, आसक्ति का संबंध शरीर से होता हैं | आत्मा से नहीं हो सकता | जब कोई आत्मज्ञान साक्षात्कार करता है उसका वह अज्ञान नष्ट हो जाता है | “जब शरीर मैं नहीं हूं मैं आत्मा हूं तो मैं शरीर के कारण आत्मा यानी मुझे दुख कैसा मैं तो स्वयं आनंद स्वरूप हूं |
ये दुखों का कारण यह था कि मैं स्वयं को शरीर और शरीर को ही सत्य मान रहा था | लेकिन वह तो मिथ्या है” इस ज्ञान के साथ साधक पर कोई दुख चिंता बाकी नहीं रहती |
साधकों! जब किसी को आत्मज्ञान प्राप्त होता हैं वह अज्ञान से मुक्त हो जाता है | अज्ञान से मुक्त होने के कारण वह संसार से भी मुक्ति प्राप्त करता हैं | भौतिक शरीर संसार की देन है शरीर और आत्मा अलग-अलग तत्व हैं | आत्मा पर कोई बंधन नहीं |
संसार से मुक्त होकर वह एक ऐसी अवस्था में पहुंच जाता है जो शाश्वत है | इसी अवस्था को समाधि कहते हैं |
परमानन्द समाधि
समाधि दिव्य अवस्था है जिसमे योगी पूर्ण जागृत अवस्था में भी बाहर से सोया हुआ या बेहोश ही लगता है | क्योंकि वह संसार से मुक्त हो जाता है | महर्षि पतंजलि कहते है समाधि योग की सबसे उच्चतम अवस्था है समाधी से परे साधने योग्य कुछ नहीं है | ईश्वर भी समाधि से परे नहीं है |
बल्कि जब कोई योगी समाधि को प्राप्त हो जाता है वह स्वयं ही ईश्वर हो जाता है |
समाधि में स्थित योगी को ही भागवत गीता में स्थितप्रज्ञ कहा गया है | जब वह संसार, शरीर और मन में मुक्त होकर आत्म के स्वरूप में ही स्थित होता है | उसका चित्त निर्विकल्प होकर अनंत में विलीन हो जाता है |
समाधि दिव्य अवस्था है |
साधकों ! हम समाधि की अवस्था शब्दों से परे है इसे हम कुछ शब्द से नहीं जान सकते | परंतु कोई दृढ़ निश्चय के साथ इस पथ पर प्रगति कर सकता है | वह एक योगी बन सकता है |
गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को योग की शिक्षा देते है, और वे अर्जुन को योगी बनने का मार्गदर्शन करते है |
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है “योगी तपस्वी से ज्ञानी से और कर्मी से भी श्रेष्ठ होता है इसीलिए हे अर्जुन तुम योगी बनने का प्रयास करो”
||ॐ तत् सत्||